लेकिन जिस जमाने में हम चांद के कई चक्कर लगा चुके हों वहां चट्टान भेद कर केवल 45 मीटर सुराख करने में दस दिन लग जाना अपने आप में कई सवाल खड़े करता है। क्या हमारा हिमाचल ऐसी मुसीबतों से निपटने के लिए तैयार है? यकीनन इसका जवाब नहीं में होगा।
सख्त चट्टानों को भेदने के लिए हमारे पास कारगर मशीनें नहीं हैं। इसके लिए हमें राजस्थान का मुंह देखना पड़ता है। ड्रिल करने वाली मशीन की बिड टूट जाए तो उसके लिए हमें स्पेयर पार्ट के लिए दिल्ली जाना पड़ता है। हमारे पास विशेषज्ञों की कोई एजेंसी नहीं जो देखे कि टनल या अन्य खतरनाक साइट पर हमारे मजदूर जान जोखिम में डालकर काम कर रहे हैं।
क्या कार्य स्थल पर उनकी सुरक्षा के जरूरी इंतजाम हैं? क्या टनल में सिर्फ हैलमेट पहन कर सिर पर गिरने वाली मुसीबत से बचा जा सकता है? हमारे सूबे के भौगोलिक हालात ऐसे हैं जहां कभी भी ऐसा हादसा हो सकता है।