देश के जितने भी लोगों ने अपना पैसा बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे एक दिन इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे? नहीं, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह देश का 95 फीसदी पैसा व्यावसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में बनता और लिखा रहता है। रिजर्व बैंक मात्र पांच प्रतिशत पैसे बनाता है, जो कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म कराकर हमारे रुपये की ताकत खत्म कर दी। अब हम जिसे रुपया समझते हैं, वह एक रुक्का है, जिसकी कीमत कागज के ढेर से ज्यादा कुछ नहीं। रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है। जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को यह तसल्ली थी कि जो नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वह बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगी।
अब हम बैंक में एक लाख रुपया जमा करते हैं, तो बैंक उसका मात्र 10 फीसदी रोककर 90 फीसदी कर्ज पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। जो लोग कर्ज लेते हैं, वे भी इसे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं। जो उस बिक्री से कमाता है, वह सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है। यानी 90 हजार रुपये बाजार में घूमकर फिर बैंक में आ जाते हैं। इस तरह बैंक हमारे पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है।
जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा, उस-उसकी इन बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिकी राष्ट्रपतियों अब्राहम लिंकन और जॉन एफ कैनेडी के अलावा जर्मन चांसलर हिटलर, इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया के राष्ट्रपति गद्दाफी तथा ईरान, चिली, इक्वाडोर, पनामा, वेनेजुएला आदि के राष्ट्रपति भी रहे हैं। हेनरी फोर्ड ने कहा था कि यदि अमेरिकी जनता को बैंकिंग व्यवस्था की सच्चाई पता चल जाए, तो कल सुबह हमारेयहां क्रांति हो जाएगी।
जब देशों को रुपये की जरूरत होती है, तब ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्ज ले लेते हैं, फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। बाजार में नोट आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानी महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी नहीं, बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है।