भारत दुनिया के गिने-चुने देशों में से एक है, जिसे प्राकृतिक संसाधनों का असली वरदान प्राप्त है। हिमालय से लेकर समुद्र तक और मरुस्थल से लेकर दलदली क्षेत्र तक यह देश विशिष्ट परिस्थितियों का धनी है। इन सभी में हिमालय को सबसे ऊंचा स्थान मात्र इसकी ऊंचाई के लिए नहीं बल्कि इसकी राष्ट्रसेवा के लिए प्राप्त है। हिमालय देश के नौ राज्यों और कुल भूमि के 17 प्रतिशत क्षेत्र में फैला है। इसका 67 प्रतिशत भू-भाग वन भूमि के लिए सुरक्षित है। खेती मात्र 13 प्रतिशत भूमि पर ही संभव है। देश का जल बैंक कहलाने वाला हिमालय 65 फीसदी आबादी को पानी देता है और उसकी रोजी-रोटी से जुड़ा है। ऐसा हिमालय पर्यावरण विनाश की चपेट में आाकर प्राकृतिक आपदाओं के जरिये हमें खतरे के संकेत दे रहा है।
स्थिति विकट तो है, लेकिन उम्मीद के कारण भी हैं। जब हम नदियों, पहाड़ों, जंगलों आदि के संरक्षण के जरिये पर्यावरण बचाने की बात करते हैं तो यह प्रयास अंतत: विफल ही होते हैं। हमें इसमें उस आबादी को भी जोड़ना होगा, जो इस पर निर्भर है। प्रकृति के निकट रह रहे लोग उसे बहुत अच्छी तरह समझते हैं। पर्यावरण विनाश और नतीजतन रोजी-रोटी के साधन न होने से हिमालय के कई गांव उजड़े हैं। गांव उजड़ते हैं तो प्रकृति की देखभाल करने वाला कोई नहीं होता और निहित स्वार्थी तत्व संसाधनों के शोषण में लग जाते हैं।
हमने इसी सोच को आधार बनाकर हिमालयीन पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन (हेस्को) के जरिये हिमालय को सहेजना शुरू किया। बड़े पैमाने पर जंगलों का विनाश, सड़कों का निर्माण और खनन के कारण भू-स्खलन और मिट्टी का क्षरण जैसी बड़ी समस्याएं जन्मी। मिट्टी-पानी हिमालय की मूल धरोहर है। अनुमान है कि हर साल मिट्टी के साथ 51 लाख टन मूल्यवान पोषक तत्व बह जाते हैं। आर्थिक दृष्टि से यह 7 अरब रुपए का सालाना नुकसान है। हमने यही से शुरुआत की।
हेस्को के अध्ययन में हमने पाया कि एक इलाके के पेड़-पौधे बड़े होते, चरम पर पहुंचते हैं और फिर वे खत्म होते हैं, लेकिन उनकी जगह फिर दूसरे पेड़-पौधे आते हैं। यह ठीक वैसा ही जैसे पुराने जमाने में राजा की जगह उसके उत्तराधिकारी लेते थे। किंतु जब बहुत ज्यादा कटाई,चराई होती है, तो इस परंपरा में दूसरे पौधे उग आते हैं, जो स्थानीय भले ही हो पर पर्यावरण की दृष्टि से मूल्यवान नहीं होते। ये नए पौधे अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरह के होते होते हैं। हालांकि, इन्हें संरक्षण दिया जाए तो उत्तराधिकार की नई परंपरा शुरू हो जाती है।
भूस्खलन रोकने के लिए हमने इसी ज्ञान का उपयोग किया। पेड़ों के चुनाव में मिट्टी की नमी की कम जरूरत और प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने की क्षमता का ध्यान रखा। झाड़ियों का पर्यावरण में ऊंचा स्थान है। एक तो उनमें प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने की अद्भुत क्षमता होती है। वह वहीं पाई जाती हैं, जहां मिट्टी कमजोर हो। बड़े होने में वक्त कम लगता है। काटने पर बढ़ जाती है और जड़ें बहुत गहरी जाती हैं। फिर आती है घास। यह मिट्टी को बचानेमें बहुत उपयोगी है। सालभर विभिन्न जलवायु में उगाई जा सकती है। जड़े सतह पर खूब फैलती हैं और गहराई में उतरकर भी चारों तरफ फैलती है। इस तरह वह मिट्टी को अच्छी तरह बांध देती है। बुरी तरह चराई होने पर भी घास फिर उग आती है, क्योंकि जमीन के भीतर जड़े बनी रहती हैं। जैसे कांस बोल्डरों वाली हरियाली रहित जमीन में अच्छी उगती है। इसके बाद क्रमश: अन्य घास उगाकर हरियाली बढ़ाई जाती है। उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कोटवाडा-दुगड्डा रोड पर 21 जगह भूस्खलन का खतरा रहता था, लोग मरते थे, यातायात रुक जाता था।
वहां इसी तरह मिट्टी को मजबूती दी गई और अब 17 जगहों पर कोई खतरा नहीं है। चार जगहों पर बहुत तीखी ढलान थी और इसलिए वहां मैकेनिकल प्रयासों की जरूत थी। इसे पीडब्ल्यूडी ने कर दिया। फिर हमने देखा कि पेड़ों की कटाई के बाद हरियाली हटती है तो खरपतवार व निरुपयोगी पौधे उग जाते हैं। ये तेजी से फैलते हैं। खेती की जमीन बर्बाद करते हैं। पशुओं के लिए विषैले होते हैं। इन्हें नष्ट करना लगभग नामुमकिन है। पश्चिमी हिमालय में लैंटाना नाम का पौधा ऐसा ही था। हमने इनके उपयोग का रास्ता निकाला। लोगों को इससे सस्ता फर्नीचर, रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजें, अगरबत्ती बनाने, पत्तियों से मच्छर भगाने की दवा बनाने और सबसे बड़ी बात इसके बायोमास से ईंधन बनाना सिखाया। स्थानीय लोगों को रोजगार का जरिया मिलने पर लैंटाना पर काबू पाना आसान हो गया।
तीसरी-चौथी शताब्दी से करीब दो लाख घरट (वॉटर मिल) का उपयोग हिमालय में होता रहा है। इनका उपयोग चावल, मक्का पीसने या तेल निकालने में होता रहा है। किसी ने इनसे बिजली बनाने के बारे में नहीं सोचा। डीजल व बिजली से चलने वाले उपकरण आए तो घरट धीरे-धीरे बेकार हो गए। हमने पत्थर व लकड़ी हटाकर उनमें धातु के टर्बाइन डालकर उनमें बेयरिंग डाले और उनकी क्षमता तीन गुना बढ़ गई। इनसे 15 किलो वाट तक बिजली पैदा होती है, जिनसे 100 घरों में रोशनी की जा सकती है। ये एक घंटे में एक किलो कार्बन प्रदूषण बचाता है। ये लेथ मशीनों के लिए भी उपयोगी है, जिनसे रोजगार पैदा होता है। विशाल पनबिजली योजनाएं हिमालय को नुकसान पहुंचाती हैं, लोगों को भी जड़ों से उखाड़ देते हैं।
फिर हमने खेती पर विचार किया। पाया कि इसमें ज्वार, बाजरा, मक्के जैसे मोटे अनाजों की अनदेखी की गई, जबकि ये इलोलॉजिकल फसलें हैं। अत्यधिक वर्षा से लेकर सूखी जमीन तक में ये उगाई जा सकती है। कई प्रकार की मिट्टी में ये उग जाती हैं। इनमें पोषक तत्व ज्यादा होते हैं और इनमें रोग व कीटों का प्रकोप बहुत कम होता है। कीटनाशकों की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती। इनमें भरपूर फाइबर होता है। पाचन के दौरान ब्लड शुगर धीरे-धीरे रिलीज होती है और ये कॉलेस्टेरॉल को कम करते हैं। हेस्को के प्रयासों से चमौली-रुद्रप्रयाग में कई परिवार फिर मोटे अनाज की खेती पर लौट आए है। कुल-मिलाकर हमारा अनुभव है कि इतने सूक्ष्म स्तर पर प्रयास कर पर्यावरण को इसके मूल स्वरूप में लौटाना संभव है, लेकिन हमारेयेप्रयास बहुत थोड़े हैं। यह समस्या हिमालय की तरह ही विशाल है पर यह काम भी असंभव नहीं है। सारे देश को हिमालय से फायदा होता है, इसलिए पूरे देश को ही इस काम के लिए आगे आना होगा।
डॉ. अनिल जोशी
हिमालय में पिछले 30 सालों से संरक्षण का कार्य कर रहे पर्यावरणविद