थकी-हारी, घबराई सेक्युलर राजनीति- योगेन्द्र यादव

सेक्युलरवाद हमारे देश का सबसे बड़ा सिद्धांत है। सेक्युलरवाद हमारे देश की राजनीति का सबसे बड़ा पाखंड भी है। सेक्युलरवाद अग्निपरीक्षा से गुजर रहा है। सेक्युलर राजनीति की दुर्दशा देखनी हो, तो बिहार आइए। यहां नैतिक, राजनीतिक, जातीय और संयोगों के चलते भाजपा की विरोधी बन गई सभी ताकतें सेक्युलरवाद की चादर ओढ़कर चुनाव लड़ रही हैं। उधर लोकसभा चुनाव जीतकर अहंकार में चूर भाजपा और उसके सहयोगी सेक्युलर भारत की जड़ें खोदने में लगे हैं। एक तरफ बहुसंख्यकवाद का नंगा नाच है, तो दूसरी तरफ थके-हारे सेक्युलरवादियों की कवायद।

सेक्युलरवाद कोई नया सिद्धांत नहीं है। सर्वधर्म समभाव इस देश की बुनियाद में है। यह शब्द भले ही नया हो, लेकिन जिसे हमारा संविधान सेक्युलर कहता है, उसकी इबारत सम्राट अशोक के खंबों पर पढ़ी जा सकती है। मतभिन्नता रखने वाले समुदायों के प्रति सहिष्णुता की नीति हमारे सेक्युलरवाद की बुनियाद है। इस नीति की बुनियाद सम्राट अकबर के सर्वधर्म समभाव में है। इसकी बुनियाद आजादी के आंदोलन के संघर्ष में है। इसकी बुनियाद एक सनातनी हिंदू महात्मा गांधी के बलिदान में है। हमारे संविधान का सेक्युलरवाद कोई विदेश से इंपोर्टेड माल नहीं है। जब संविधान किसी एक धर्म को राजधर्म बनाने से इनकार करता है और सभी धर्मावलंबियों को अपने धर्म, अपने मत को मानने और उसका प्रचार-प्रसार करने की पूरी आजादी देता है, तो वह हमारे देश की मिट्टी में रचे-बसे इस विचार को मान्यता देता है।

लेकिन पिछले 65 साल में सेक्युलरवाद इस देश की मिट्टी की भाषा छोड़कर अंग्रेजी बोलने लग गया। सेक्युलरवादियों ने मान लिया कि संविधान में लिखी गई गारंटी से देश में सेक्युलरवाद स्थापित हो गया। उन्होंने अशोक, अकबर और गांधी की भाषा छोड़कर विदेशी भाषा बोलनी शुरू कर दी। कानून, कचहरी और राज्य सत्ता के सहारे सेक्युलरवाद का डंडा चलाने की कोशिश की। वे धीरे-धीरे देश के औसत नागरिकों के दिलो-दिमाग को सेक्युलर बनाने की जिम्मेदारी से बेखबर हो गए। उधर सेक्युलरवाद की जडें़ खोदने वालों ने परंपरा, आस्था और कर्म की भाषा पर कब्जा कर लिया। इस लापरवाही के चलते धीरे-धीरे बहुसंख्यक समाज के एक तबके को महसूस होने लगा कि हो न हो, इस सेक्युलरवाद में कुछ गड़बड़ है। उन्हें इसमें अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की बू आने लगी। इस देश के सबसे पवित्र सिद्धांत में देश के आम जन की आस्था घटने लगी।

बहुसंख्यक समाज के मन को जोड़ने में नाकाम सेक्युलर राजनीति अल्पसंख्यकों की जोड़-तोड़ में लग गई। व्यवहार में सेक्युलर राजनीति का मतलब हो गया अल्पसंख्यक समाज, खासतौर पर मुस्लिम समाज, के हितों की रक्षा। पहले जायज हितों की रक्षा से शुरुआत हुई, धीरे-धीरे जायज-नाजायज हर तरह की तरफदारी को सेक्युलरवाद कहा जाने लगा। इधर मुस्लिम समाज उपेक्षा का शिकार था, पिछड़ा हुआ था, और सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक रूप से भेदभाव झेल रहा था, उधर सेक्युलर राजनीति फल-फूल रही थी। नतीजा यह हुआ कि सेक्युलर राजनीति मुसलमानों को बंधक बनाने की राजनीति हो गई। मुसलमानों को डराए रखो, हिंसा और दंगों का डर दिखाते जाओ और उनके वोट लेते जाओ। मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज को न शिक्षा,न रोजगार, न बेहतर मोहल्लों में मकान- मगर किसी की भी दिलचस्पी ऐसी समस्याओं के समाधान में नहीं दिखती। बस मुस्लिम राजनीति केवल कुछ धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों के ईद-गिर्द घूमती रहे, और औसत मुसलमान डर के मारे सेक्युलर पार्टियों को वोट देता रहे- यह ढकोसला देश में सेक्युलरवाद कहलाने लगा।

सेक्युलरवाद के सिद्धांत और वोट बैंक की राजनीति के बीच की खाई का भांडा फूटना ही था। बहुसंख्यक समाज सोचता था कि सेक्युलरवाद उसे दबाने और अल्पसंख्यक समाज के तुष्टिकरण का औजार है। अल्पसंख्यक समाज समझता कि सेक्युलरवाद उन्हें बंधक बनाए रखने का षड्यंत्र है। यह खाई सबसे पहले अयोध्या आंदोलन में दिखाई दी, जिसकी परिणति बाबरी मस्जिद के ध्वंस में हुई। साल 2002 में गुजरात के नरसंहार में सेक्युलरवाद फिर हारा। इस राजनीतिक प्रक्रिया का बड़ा नतीजा हमें 2014 के चुनाव में देखने को मिला।

आज सेक्युलर राजनीति थकी-हारी और घबराई हुई है। नरेंद्र मोदी की अभूतपूर्व विजय और उसके बाद से देश भर में सांप्रदायिक राजनीति के सिर उठाने से वह सकपकाई हुई है। पिछले 25 साल में तमाम छोटी-बड़ी लड़ाइयों में हारकर आज वह मन से हारी हुई है। देश के सामान्य जन को सेक्युलर विचार से दोबारा जोड़ने की बड़ी चुनौती का सामना करने से पहले ही वह थकी हुई है। इसलिए आज सेक्युलर राजनीति शॉर्ट-कट हो गई है। वह किसी जादू की तलाश में है, किसी भी तिकड़म का सहारा लेने को मजबूर है।

बिहार का चुनाव इसी थकी-हारी घबराई सेक्युलर राजनीति का नमूना है। जब सेक्युलर राजनीति जन चेतना बनाने में असमर्थ हो जाती है, जब उसे लोकमानस का भरोसा नहीं रहता, तब वह किसी भी तरह से भाजपा को हराने का नारा देती है। इस रणनीति के तहत भ्रष्टाचार क्षम्य है, जातिवादी गठबंधन क्षम्य है और राजकाज की असफलता भी क्षम्य है। बस जो भाजपा के खिलाफ खड़ा है, वह सही है, सेक्युलर है। बिहार के चुनाव परिणाम बताएंगे की यह रणनीति सफल होती है या नहीं। अभी से चुनावी भविष्यवाणी करना बेकार है। संभव है कि नीतीश-लालू की रणनीति कामयाब हो भी जाए। यह भी संभव है कि सेक्युलरवाद के नाम पर भानुमती का कुनबा जोड़ने की यह कवायद बिहार की जनता नामंजूर कर दे। यह तो तय है कि इस गठबंधन के पीछे मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण हो जाएगा। लेकिन यही तो भाजपा भी चाहती है, ताकि उसके मुकाबले वह हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर सके। अगर ऐसा हुआ, तो पासा उल्टा पड़ जाएगा। चुनाव का परिणाम जो भी हो, लेकिन इस चुनाव में बिहार हारेगा, सेक्युलर राजनीति हारेगी।

 

अगर देश के पवित्र सेक्युलर सिद्धांत को बचाना है, तो सेक्युलर राजनीति को पुनर्जन्म लेना होगा, सेक्युलर राजनीति को दोबारा लोकमानस से संबंध बनाना होगा, अल्पसंख्यकों के लिए केवल सुरक्षा की राजनीति छोड़कर शिक्षा, रोजगार और प्रगति की राजनीति शुरू करनी होगी। शायद अशोक का प्रदेश बिहार एक अच्छी जगह है इस राजनीति की शुरुआत के लिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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