चिंताजनक है बढ़ती शिक्षित बेरोजगारी– रामदत्त त्रिपाठी

उत्तर प्रदेश के नौजवानों ने पहली बार सत्ता के मुख्य केंद्र राज्य सचिवालय को झकझोर दिया है। पीएच. डी., पोस्ट ग्रेजुएट, इंजीनियरिंग और एमबीए डिग्री धारक समेत करीब तेईस लाख युवक-युवतियों ने चपरासी के चार सौ से कम पदों के लिए फॉर्म भरा है, जिसके लिए सरकारी तौर पर मात्र पांचवीं पास की योग्यता निर्धारित है। सरकार का माथा चकरा रहा है कि चयन की कौन-सी प्रक्रिया अपनाई जाए? इससे पहले गांवों में लेखपाल के करीब चौदह हजार पदों के लिए छब्बीस लाख आवेदकों की योग्यता परखने के लिए टाटा की टीसीएस कंपनी की मदद ली गई, फिर भी व्यवस्था संभालने में प्रशासन के पसीने छूट गए। यही हाल पुलिस और सेना में सिपाही की भर्ती में होता है। कई वर्षों से काम कर रहे करीब पौने दो लाख शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक के पदों पर समायोजित करने की सरकार की कोशिश को हाई कोर्ट ने गैरकानूनी बताकर खारिज कर दिया है। सरकार डरी हुई है कि शिक्षा मित्रों का विक्षोभ कहीं शांति व्यवस्था के लिए समस्या न बन जाए।

इससे पहले छत्तीसगढ़ में चपरासी के तीस पदों के लिए पचहत्तर हजार आवेदन आए थे। वहां प्रशासन ने परीक्षा कराने के बजाय भर्ती रद्द करना मुनासिब समझा। निजी क्षेत्र की कंपनियां� बेरोजगारों की मजबूरी का फायदा उठा रही हैं। लाखों इंजीनियर, एमबीए और पोस्ट ग्रेजुएट मामूली वेतन पर अपने घरों से दूर पेट पालने को मजबूर हैं।

बड़ी संख्या में शिक्षित बेरोजगारी हमारी शिक्षा प्रणाली पर प्रश्नचिह्न है। हमारी शिक्षा हमें हुनरमंद नहीं बनाती है। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में जो विकास हुआ, उसमें भी युवकों के लिए सम्मानजनक रोजगार के अवसर पैदा नहीं हुए। जब लोगों के पास रोजगार और जेब में पैसा नहीं होगा, तो गोदामों में अनाज होते हुए भी लोग खाली पेट रहेंगे। भयंकर बेरोजगारी और गरीब-अमीर के बीच बढ़ती यह खाई असंतोष को जन्म दे रही है।

उत्तर प्रदेश में 1989 में कांग्रेस की पराजय के बाद जनता दल, भाजपा, बसपा और अब सपा शासन में है। यानी हर विचारधारा की सरकार लोगों ने देख ली है। राजनीतिक दलों के पास लुभावने नारे तो हैं, पर उनके आधार पर सरकार की नीतियां बनाकर उनके लिए वित्तीय प्रबंध की क्षमता पार्टी संगठन में नहीं है। नतीजतन सरकार में आने पर वे नीतियां और कार्यक्रम बनाने का काम अफसरों पर छोड़ देते हैं। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, देशी- विदेशी कंपनियां, ठेकेदार और सेल्समैन इसका फायदा उठाते हैं। नतीजा है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल को निजी क्षेत्र की मुनाफाखोरी के लिए खुला छोड़ दिया गया है। जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा ऐसी योजनाओं में ज्यादा लगता है, जहां से कमीशन की गुंजाइश ज्यादा हो। मुलायम, लालू, नीतीश, मायावती, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, अखिलेश और नरेंद्र मोदी जैसे लोग भी इस रीति-नीति में रच-बस गए, जो गांव और गरीबी का प्रत्यक्ष अनुभव रखते हैं।

नतीजतन करोड़ों लोगों को रोजगार देने की क्षमता रखने वाला कृषि और कुटीर उद्योग तबाह है। दूसरे छोटे-बड़े कल-कारखाने भी कराह रहे हैं। चीन, कोरिया अथवा मलयेशिया का सामान बेचने में कितने लोग खपेंगेऔर दुनिया हमारे कितने कंप्यूटर इंजीनियरों को रोजगार देगी? या कितने लोग बैंक, इंश्योरेंस, परिवहन या पर्यटन व्यवसाय में लगेंगे? अगर बेरोजगार युवा निराश हुए, तो हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो सकता है।

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