लेकिन सम्मेलन और अखबारी रपटों में यह भ्रमात्मक जुमला हावी रहा कि हिंदी राष्ट्रभाषा है। इसलिए हम भारतीयों को हिंदी में अपने सभी राष्ट्रीय कामकाज करने चाहिए, यही देशभर में शिक्षा का माध्यम होना चाहिए। ऐसा मुमकिन हो पाया चूंकि सम्मेलन में अन्य भारतीय भाषाओं के लिए कोई सचेत स्थान नहीं रखा गया था। यानी, हम न तो आजादी की लड़ाई से निर्मित नए भारत की बहुभाषीय चेतना को पचा पाए और न ही संविधान सभा में भाषा के सवाल पर हुई तीखी बहसों से कुछ सीख पाए। हम यह भी भूल गए कि देश की एकजुटता को बरकरार रखने के लिए कितनी पेचीदगियों से जूझकर संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 343-351 (खंड 17) गढ़े, जिनके तहत हिंदी को राजभाषा का (न कि राष्ट्रभाषा का) दर्जा मिला और किस दूरदृष्टि से आठवीं अनुसूची में देश की विभिन्न् भाषाओं के लिए सम्मानजनक दर्जा पाने का रास्ता खोला गया। हमारी विवधतापूर्ण संस्कृति की जड़ें काफी हद तक संविधान निर्माताओं के इस लोकतांत्रिक नजरिए में ढूंढ़ी जा सकती हैं।
सम्मेलन का दूसरा मिथक भाषा बनाम बोली का था। यह आम जुमला था कि मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रज, निमाड़ी या मालवी हिंदी की अपभ्रंश हैं, महज बोलियां हैं। दरअसल, जिनको अपभ्रंश कहा गया वे हिंदी की जननी हैं, हिंदी से कहीं ज्यादा पुरानी और समृद्ध हैं। हिंदी का ऐसा ही ऐतिहासिक सांस्कृतिक रिश्ता उर्दू से भी है। इन भाषाओं को बोली कहकर हम हिंदी का अहंकार दिखाते हैं। एक भाषाविज्ञानी ने ठीक कहा है कि भाषा वह बोली है, जिसके पास लड़ाकू हवाई जहाज और टैंक हैं। आज राजसत्ता हिंदी के साथ है। यह समझ इसलिए जरूरी है कि हम हिंदी के लिए जो भी रणनीति बनाएं, उसमें ऐसी सभी भाषाओं की भी आगे बढ़ाने की रणनीति शामिल हो, चूंकि ये भाषाएं आज भी करोड़ों देशवासियों की मातृभाषाएं हैं। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का शैक्षिक सिद्धांत इन भाषाओं पर भी लागू होता है अन्यथा ये भाषाएं भी भाषाविज्ञानी नजरिए से तथाकथित ‘हिंदी साम्राज्यवाद" का शिकार होकर लुप्त हो जाएंगी।
सम्मेलन पर हावी तीसरा मिथक था कि यदि विदेशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार होगा तो हिंदी दुनिया की ताकतवर भाषा बनेगी। दरअसल, जिन भाषाओं को वैश्विक पटल पर स्थान मिला है, वह इसलिए कि उन मुल्कों की भाषाओं को आंतरिक नीतियों में सटीक स्थान दिया गया। अगर भारत की भाषाओंको विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका और साथ में शिक्षा व्यवस्था, खासकर उच्च शिक्षा व शोध, वाणिज्य-कारोबार, सूचना प्रौद्योगिकी आदि में स्थान नहीं दिया जाएगा तो हम कैसे उम्मीद करें कि दुनिया हमारी भाषाओं को सम्मान देगी? हमें चार बिंदुओं का एक चौखंभा एजेंडा अपनाने का साहस करना होगा।
पहला, पूरे देश के लिए एक ‘साझी भाषा नीति" कायम करना हमारी राजनीतिक प्राथमिकता बननी चाहिए। इसके मायने देश की तमाम भाषाओं को आपस में गूंथते हुए सभी तबकों के समतामूलक विकास में स्थान देने वाली नीति बनाना है।
दूसरा, रोजगार व जीविका के साधनों में हरेक भाषा को भेदभाव से मुक्त दर्जा देना होगा, ताकि कोई भी भाषायी समूह अपनी मातृभाषा के कारण विकास के समान अवसरों के वंचित न रहे। तीसरा, ‘केजी से पीजी तक" शिक्षा व शोध व्यवस्था में मातृभाषाओं को माध्यम बनाने के लिए चरणबद्ध योजना लागू की जाए – पहले चरण में 12वीं कक्षा तक और फिर दूसरे चरण में कालेजों व विश्वविद्यालयों व पेशेगत कोर्सों तक। जाहिर है कि इस व्यवस्था में अंग्रेजी व अन्य देशी-विदेशी भाषाओं को विषय के रूप में पढ़ाने का बेहतरीन इंतजाम करना होगा। यह तभी संभव है जब देशभर में ‘समान शिक्षा व्यवस्था" हो। जब तक भेदभाव पर टिकी हुई वर्तमान परतदार शिक्षा व्यवस्था रहेगी तब तक देश की 80 फीसदी से अधिक जनता दलित, आदिवासी, मुस्लिम व अधिकांश ओबीसी न केवल शिक्षा व भाषाई ज्ञान से वरन् विकास से भी वंचित रहेगी।
चौथा, देश की तमाम भाषाओं के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए एक कारगर अंतरभाषाई अनुवाद तंत्र स्थापित करना होगा। इसी तंत्र के जरिए दुनियाभर की भाषाओं के ज्ञान को भारतीय भाषाओं में अनूदित करने की भी व्यवस्था रहेगी। तभी गांधीजी के सिद्धांत को हम धरती पर उतार पाएंगे कि हमारे घर की खिड़कियां दुनियाभर की बयार के लिए खुली हैं, किंतु हमारे पांव अपनी जमीन पर मजबूती से टिके हैं।
-लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा संकाय के डीन रहे हैं।