जयपुर. राज्य सरकार राइट टू एजुकेशन (आरटीई) में बदलाव कर दोबारा परीक्षा प्रणाली लागू करने की तैयारी में है। कई लोगों का मानना है कि आरटीई के तहत किसी भी छात्र को फेल न करने की बाध्यता शिक्षा की गुणवत्ता को कम करती है और राज्य सरकार की पहल एक अच्छा कदम है। मगर इस सिक्के का एक दूसरा और उजला पहलू भी है।
आरटीई के इसी फेल न करने की बाध्यता के प्रावधान से बच्चों में परीक्षा का डर कम हो गया है। 2010 (जब आरटीई लागू हुआ) से 2014 के बीच परीक्षा में फेल होने पर आत्महत्या करने वाले 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या 22 से घटकर 6 पर आ गई, यानी 4 साल में 73% की कमी। स्पष्ट है कि कानून चाहे केंद्र का हो राज्य का, ये जरूरी है कि बालमन के लिए परीक्षा का दबाव दु:स्वप्न न बन जाए।
…और जहां परीक्षा का तनाव बाकी है, वहां ज्यादा बढ़ गया आत्महत्याआें का आंकड़ा
राज्य में बच्चों की आत्महत्याएं तो कम हो गई हैं, मगर परीक्षा में फेल होने पर आत्महत्याआें का कुल आंकड़ा बढ़ गया है। ये हाल राज्य ही नहीं लगभग पूरे देश का है। प्रतियोगी परीक्षाओं और उच्च शिक्षा में अच्छे प्रदर्शन का दबाव 14 वर्ष से ऊपर के किशोरों के लिए जानलेवा साबित हो रहा है।
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2010 में राजस्थान में 806 ने बीमारी से तंग आकर जान दी थी। 2014 में संख्या 483 रह गई। जानकार इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यहां लागू मुफ्त दवा कानून को मानते हैं।