वारसा में आयोजित यूएनएफसीसीसी के 19वें सत्र नवंबर, 2013 में सभी देशों से पेरिस में होने वाले जलवायु वार्ता सम्मेलन से पूर्व यह बताने का आग्रह किया गया था कि वे बिना किसी कानूनी बाध्यता के कार्बन उत्सर्जन कटौती में कितना अंशदान करेंगे। इसी के मद्देनजर हर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के अंशदान पर अपनी कार्ययोजना पेश करने की प्रक्रिया में है। संयुक्त राष्ट्र का जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, जिसे कॉप-21 नाम दिया गया है, पेरिस में आगामी 30 नवंबर से प्रस्तावित है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत सरकार भी अपनी कार्ययोजना पेश करने की तैयारी कर रही है।
गौरतलब है कि जब भारत और चीन जैसे एशियाई देश विकास के शैशव काल में थे, तब विकास के तेज रथ पर सवार अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों ने ग्रीनहाउस गैसों का अंधाधुंध उत्सर्जन कर धरती को जलवायु परिवर्तन के गर्त में धकेला। ऐसे में जलवायु परिवर्तन को रोकने की उनकी एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। इसके लिए उन्हें केवल अपने उत्सर्जन में कटौती ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि विकासशील देशों को कम कार्बन उत्सर्जन के मार्ग पर चलने के लिए आर्थिक व तकनीकी सहायता भी देनी चाहिए। इस दिशा में कार्बन के प्रमुख उत्सर्जक यानी विकसित देश जलवायु परिवर्तन रोकने का उपाय करने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय मदद मुहैया कराने पर सहमत हुए हैं। इसके लिए एक हरित जलवायु निधि का गठन किया गया है। अब तक इसमें 10 अरब डॉलर जमा हुए हैं। पर वैश्विक आर्थिक विकास तथा कार्बन का उत्सर्जन अब एक-दूसरे के समानार्थी नहीं रहे। पिछले साल विगत कई दशकों में पहली बार वैश्विक अर्थव्यवस्था में वृद्धि के बावजूद उत्सर्जन का स्तर स्थिर रहा है। वह भी तब, जब विकासशील देशों को कम कार्बन उत्सर्जन के मार्ग पर चलने के लिए कोई सहायता नहीं मिली।
मजबूत आर्थिक नीति और वातावरण के चलते भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में से एक है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमारी तरफ से ठोस प्रतिक्रिया जताना अवश्यंभावी है। दरअसल हमारी जो ऊर्जा नीति है, उसमें कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने का एक बड़ा लक्ष्य है। इसके लिए बहुद्देशीय ऊर्जा योजना के विचार को विकसित करने की जरूरत है, जो घरेलू ऊर्जा योजना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन को रोकने में इसके योगदान, दोनों को एक साथ संबोधित करे। आर्थिक विकास और उच्च ऊर्जा खपत के बीच सीधा संबंध है। देश की विकास गाथा के पीछे बिजली की खपत में 60 प्रतिशत की वृद्धि का योगदान है। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अक्षय ऊर्जा कार्य योजना के तहत देश में करीब 4,200 मेगावाट सोलर ग्रिड की स्थापना हो चुकी है। राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन कार्य योजना में 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य निर्धारित है। ऐसे में भारतीय उद्योगों के लिए ऊर्जा के लिहाज से किफायती और निरंतरता भरी कार्यपद्धतियों को अपनाकर कम कार्बन उत्सर्जन की दिशा में सार्थक कदम उठाने का यह सही समय है। भारत में ऑफ ग्रिड ऊर्जा का बहुत बड़ा बाजार है।
वैश्विक उद्योग जगत पहले से ही निम्न-कार्बन उत्पादों तथा सेवाओं के 55 खरब के विश्व बाजारको संचालित कर रहा है, और इसमें तीन प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हो रही है। स्वच्छ ऊर्जा की कीमतों में नाटकीय रूप से गिरावट, तेल के दामों में लगातार उतार-चढ़ाव तथा कार्बन मूल्य निर्धारण में विश्वव्यापी बढ़ोतरी के रूप में वैश्विक अर्थव्यवस्था के हाल के रुझानों से विभिन्न देशों के सभी आय वर्गों में निम्न-कार्बन विकास के लिए माहौल बन रहा है। उल्लेखनीय है कि 100 गीगावाट सौर पीवी स्थापना से वर्ष 2022 तक सालाना 1,13,880 गीगावाट बिजली का उत्पादन हो सकता है। इसके लिए करीब 74 अरब अमेरिकी डॉलर का खर्च आएगा, जो भारत में सौर ऊर्जा में निवेश बढ़ने की संभावना को दर्शाता है।
भारत जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल व इसकी उपयोगिता बढ़ाने जैसे सक्रिय कदम उठाने को प्रतिबद्ध है। वह सौर, पवन जैसे अक्षय ऊर्जा क्षमता वाले पचास देशों के साथ एक गठबंधन बनाने की तैयारी में है, जो आपस में तकनीकी साझा करेंगे। इससे बिजली के दामों में कमी आने की संभावना है। स्वैच्छिक राष्ट्रीय लक्ष्य की दिशा में कदम बढ़ाते हुए भारत सरकार 2022 तक अक्षय ऊर्जा से 1.75 लाख मेगावाट उत्पादन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसमें एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा से हासिल किया जाना है। इसमें सौर ऊर्जा से एक लाख मेगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य रखा है। हाल में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट ने भी इसे स्वीकारा है कि भारत स्वैच्छिक लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में अग्रसर है।
भारत की ओर से तय कार्यक्रमों में इस पूरे खेल को बदल देने की संभावनाएं दिख रही हैं। ग्लोबल एजेंसियों ने भारत के अक्षय ऊर्जा मिशन के लिए बड़े पैमाने पर आसान शर्तों पर कर्ज देने में रुचि दिखाई है। ऐसे में ऑफ-ग्रिड स्वच्छ ऊर्जा निवेश द्वारा सार्वभौमिक ऊर्जा पहुंचाने के लिए भारतीय कंपनियों के सामने आने का समय आ गया है। स्वच्छ ऊर्जा के लिए जरूरी लागत पूंजी में कमी लाने के लिए सरकारों, विकास बैंकों तथा निजी क्षेत्र को परस्पर सहभागिता से काम करना चाहिए।
उद्योगों के लिए ऊर्जा के लिहाज से किफायती और निरंतरता भरी कार्यपद्धतियों को अपनाकर कम कार्बन उत्सर्जन की दिशा में सार्थक कदम उठाने का यह सही समय है। उद्योगों को व्यापार से जुड़े फैसलों और नीतियों में पर्यावरण संबंधी जोखिमों का भी ख्याल रखना होगा। भारतीय उद्योग, विकास के साथ-साथ न्यूनतम कार्बन उत्सर्जन के रास्ते पर चलकर अनेक विकासशील देशों का नेतृत्व कर सकते हैं।