सामाजिक न्याय के सवाल- योगेन्द्र यादव

अच्छा हुआ कि देश ने मंडल आयोग की रपट लागू करने की पच्चीसवीं वर्षगांठ को नजरंदाज कर दिया। अच्छा इसलिए नहीं, कि मंडल आयोग की रपट कोई मुसीबत थी, जिसे भुला देना ही भला है। मंडल आयोग देश में सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा और जरूरी कदम था। मगर, इसे बार-बार दोहराना हमें कुछ बासी और अप्रासंगिक सवालों की ओर ले जाता है।

आज से 25 साल पहले 7 अगस्त, 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने अचानक बरसों पुरानी बंद बोतल में से मंडल के जिन्न को बाहर निकाला था। मंडल आयोग की 1980 की रपट की एक सिफारिश को उठाकर ओबीसी के लिए सरकारी नौकरी में 27 प्रतिशत आरक्षण घोषित कर दिया गया था। कोई दो-तीन साल तक पूरे देश में ओबीसी आरक्षण के बहाने सामाजिक न्याय की बहस चली थी। उसके पंद्रह साल बाद अर्जुन सिंह के शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण के आदेश के बाद मंडल-2 की बहस भी चली थी। मगर इन बहसों में देश में सामाजिक न्याय पर कोई सार्थक बातचीत नहीं हुई।

दरअसल, मंडल आयोग पर चली बहसों से देश में दो खेमे बन गए। एक ओर वो लोग थे, जो ‘मेरिट’ के नाम पर� सामाजिक न्याय के ही विरोधी थे। दूसरा खेमा उनका था, जो सामाजिक न्याय के समर्थक थे, जो न्याय के लिए सिर्फ जाति को कारक मानते थे और केवल जाति आधारित आरक्षण चाहते थे। मंडल की बहसों में दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह अड़े रहे। बस मंडल की बहस का एक फायदा हुआ। सामाजिक न्याय का सांविधानिक आधार स्पष्ट हो गया। इंदिरा साहनी वाले प्रसिद्ध फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने 1993 में स्पष्ट कर दिया कि जाति आधारित आरक्षण संविधान सम्मत है। लेकिन इससे आगे बढ़कर सामाजिक न्याय के बारे में बारीकी और नए तरीके से सोचने को बढ़ावा नहीं मिला।

मंडल रपट लागू करने का असली असर राजनीति में हुआ। दक्षिण भारत में पहले ही हो चुका था, लेकिन मंडल के चलते उत्तर भारत में भी अगड़ों का वर्चस्व खत्म हुआ। उत्तर प्रदेश और बिहार में पिछड़ी जातियों का नेतृत्व स्थापित हुआ। लेकिन पिछड़ों के नाम पर राज करने वालों ने उनकी सामाजिक-शैक्षणिक और आर्थिक अवस्था बदलने के लिए कुछ नहीं किया। पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरी में आरक्षण का मुख्य उद्देश्य था, जीवन के अवसरों में बराबरी। उसमें पिछले पच्चीस साल में बस नाममात्र का बदलाव हुआ है।

अगर हम सामाजिक न्याय के बारे में गंभीर हैं, तो हमें मंडल से आगे जाकर कई बड़े सवाल उठाने होंगे। देश भर में सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर कैसे सुधरे, ताकि ट्यूशन और प्राइवेट स्कूल की फीस न दे सकने वाले मां-बाप के बच्चे भी अपनी ‘मेरिट’ दिखा सकें? केंद्र सरकार के फंड से चलने वाले कुछेक विश्वविद्यालयों और संस्थानों को छोड़कर बाकी उच्च शिक्षा की संस्थाओं का संकट कैसे दूर हो?� देश भर में सरकारी नौकरियों की खरीद-फरोख्त कैसे बंद हो? प्राइवेट नौकरियों को सामजिक न्याय के दायरे में कैसे लाया जाए? जिन परिवारों को आरक्षण का भरपूर लाभ मिल चुका है, उनकी जगह ऐसे परिवारोंऔर जातियों को कैसे पहले मौका दिया जाए?

 

-स्वराज अभियान के सह-संस्थापक व प्रसिद्ध राजनीतिविज्ञानी

 

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