तकनीकी शिक्षा की विसंगतियां- नीलांजन मुखोपाध्याय

विगत पांच अगस्त को लोकसभा में जवाब देते हुए मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने बताया कि 2012 से 2015 के दौरान, कुल तीन वर्षों में सोलह आईआईटी के 2,060 छात्रों ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इसी दौरान कुल तीस एनआईटी से 2,352 छात्र अधबीच में निकल गए। केंद्रीय मंत्री के अनुसार, दूसरे कॉलेजों में दाखिला मिलने, व्यक्तिगत वजहों से, चिकित्सा कारणों से, पढ़ाई के दौरान नौकरी मिल जाने या कोर्स का तनाव न झेल पाने के कारण इन छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी। तनाव न झेल पाने को भले ही सरकार की तरफ से आखिरी कारण बताया गया, लेकिन यह बहुत खतरनाक संकेत है कि बेहतरीन संस्थाओं में तकनीकी पढ़ाई किस तरह हो रही है।

आईआईटी से जितने छात्रों ने पढ़ाई छोड़ी है, उनमें सर्वाधिक संख्या आईआईटी, रूड़की की है। वहां वर्ष 2012-13 में 159, 2013-14 में 188 और 2014-15 में 228 छात्रों ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी। हालांकि मीडिया में यह आया है कि 2014-15 में जिन 228 छात्रों ने पढ़ाई छोड़ी है, उनमें से 72 को वहां के प्रशासन ने विगत जून में निलंबित किया, क्योंकि परीक्षा में उनके अंक कम थे। आईआईटी की शर्तों के मुताबिक, सभी छात्रों को फर्स्ट ईयर की परीक्षाएं न सिर्फ पास करनी हैं, बल्कि उन्हें पांच सीजीपीए से अधिक अंक (यानी कम से कम 55 प्रतिशत) लाने हैं। हालांकि ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि आईआईटी या एनआईटी के दूसरे संस्थानों में पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्रों में परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन न करने वाले छात्र भी हैं या नहीं। रूड़की की घटना पर मीडिया द्वारा तवज्जो दिए जाने के बाद आईआईटी ने इन छात्रों को वापस ले तो लिया है, लेकिन यह शर्त रख दी है कि अगले साल परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन न कर पाने पर उन्हें दूसरा मौका नहीं मिलेगा।

हालांकि सरसरी तौर पर देखें, तो अच्छा प्रदर्शन न करने वाले छात्रों को दंडित करने के आईआईटी प्रशासन के फैसले में कुछ गलत नहीं है। लेकिन रूड़की प्रशासन द्वारा शुरू में निलंबित किए छात्रों के आंकड़ों को गौर से देखने पर पता चलता है कि न सिर्फ हमारी परीक्षा प्रणाली में गड़बड़ी है, बल्कि समाज से विषमता खत्म करते हुए शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में सबके लिए बराबरी का अवसर मुहैया करने के जिस मॉडल के बारे में हम सोचते हैं, वह भी सही नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि रूड़की, आईआईटी द्वारा निलंबित किए गए छात्रों में से नब्बे फीसदी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के थे। ये छात्र दरअसल कंप्यूटर साइंस, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिकल, केमिकल, मैकेनिकल और सिविल इंजीनियरिंग जैसे विषयों की पढ़ाई कर रहे थे, जिनमें दाखिले के लिए सर्वाधिक भीड़ होती है, और जिनमें रोजगार की संभावनाएं भी सबसे अधिक हैं।

तथ्य यह भी है कि निलंबित किए गए छात्रों में से कइयों ने जेईई की परीक्षा में ऊंचे अंक हासिल किए थे। ऐसे में, सवाल यह है कि जेईई में बेहतर प्रदर्शन करने के एक साल बाद उन छात्रों का यह हाल क्यों हुआ। गलती उन छात्रों में है या व्यवस्था में? हमारेयहां समस्या दरअसल आरक्षण व्यवस्था के तहत शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेने या लोगों को नौकरी देने के बाद शुरू होती है। सरकारों ने मान लिया है कि किसी शिक्षण संस्था में दाखिला या राज्यों या केंद्र सरकार में नौकरी देने के बाद आरक्षण की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। ऐसे में, आरक्षण का लाभ हासिल करने वाले उन लोगों के लिए मुश्किलें पैदा होती हैं, जिनकी अंग्रेजी कमजोर होती है। इस समस्या की तरफ रूड़की के एक छात्र ने इशारा किया। उसका कहना था कि जियोमैटिक्स के प्रैक्टिकल में उसने 25 में से 23 अंक प्राप्त किए, लेकिन लिखित परीक्षा में 100 अंकों में उसे कुल आठ अंक ही मिले, क्योंकि वह अंग्रेजी में उतना निपुण नहीं है।

चूंकि कोचिंग संस्थानों की मार्केटिंग इस कदर की जाती है कि छात्रों को पूरा ध्यान किसी भी तरह से विशिष्ट तकनीकी संस्थान में दाखिला लेने पर ही होता है। नतीजतन, छात्रों की बड़ी संख्या दाखिला मिलने के बाद आराम की स्थिति में आ जाती है। लेकिन संस्थान द्वारा पहली चेतावनी पर्ची मिलने के बाद, वंचित वर्गों के छात्र पढ़ाई की गति तेज करने में सक्षम तो होते हैं, पर जो छात्र सामाजिक स्थिति के कारण शैक्षणिक योग्यता में कमजोर होते हैं, वे अपने साथियों के साथ कदमताल मिलाने में शायद ही सफल हो पाते हैं। नतीजतन, एक बार जब उनका ग्रेड या अंक कम होना शुरू हो जाता है, तो फिर उनके लिए अपनी स्थिति ठीक करना मुश्किल हो जाता है, जिस कारण वे उन स्थितियों में फंस जाते हैं, जहां संस्थान के अधिकारियों द्वारा उन्हें निष्कासित करना उचित जान पड़ता है।

इसका समाधान महज वंचित वर्गों के लिए काउंसलिंग करने या उनके लिए विशेष अंग्रेजी सत्र आयोजित करने जैसे प्रयासों से नहीं निकलेगा। अलबत्ता कोशिश विशिष्ट शैक्षणिक संस्थानों की काउंसलिंग फैकल्टी के गठन और अन्य स्टाफों की नियुक्ति से शुरू की जा सकती है। कई मामलों में, फैकल्टी और अधिकारी उच्च वर्ग के होते हैं। जिस समय वे कॉलेज जाया करते थे, उनमें आरक्षित श्रेणियों के लोगों के खिलाफ सामाजिक पूर्वाग्रह मौजूदा समय से अधिक रहा होगा। लिहाजा कई फैकल्टी और प्रशासनिक स्टाफ की नजरों में आरक्षित श्रेणियों से आने वाले छात्रों का मतलब होता है, संस्थान की शैक्षिक प्रतिभा के कम होने की आशंका।

बहरहाल, आईआईटी या एनआईटी जैसे तकनीकी संस्थान देश के तकनीकी कौशल का खांका खींचते हैं, इसलिए जब तक यह कमी दूर नहीं की जाएगी, भारत अत्यधिक न्यायसंगत समाज बनने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाएगा। हमें यह समझ लेना चाहिए कि आरक्षण के बूते संस्थानों में दाखिला लेने वाले छात्रों को अगर निष्कासित किया जाता रहा, तो उससे सामाजिक अशांति ही बढ़ेगी।

वरिष्ठ पत्रकार, और नरेंद्र मोदी-द मैन, द टाइम्स के लेखक

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