वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार, वर्ष 2009 से 2012 में प्रति वर्ष संगठित क्षेत्र में मात्र 5 लाख रोजगार का सृजन हुआ है. हमारे श्रम बाजार में प्रति वर्ष एक करोड़ युवा प्रवेश कर रहे हैं, पुराना बैकलॉग कम से कम 6 करोड़ का है.
क्या कारण है कि हम केवल 5 लाख रोजगार प्रति वर्ष सृजित कर रहे हैं? कारण है कि कंपनियों द्वारा मशीनों का उपयोग किया जा रहा है. विकास की प्रक्रिया में ऐसा होता ही है. विकास का अर्थ है पूंजी की प्रचुर उपलब्धता. पूंजी अधिक उपलब्ध होने से ब्याज दर कम हो जाती है और कंपनियों के लिए महंगी मशीनों में निवेश करना लाभप्रद हो जाता है.
दूसरी तरफ, विकास की प्रक्रिया में लोगों का जीवन स्तर ऊंचा होता है, वेतन बढ़ते हैं. इससे कंपनियों के लिए श्रमिक को रोजगार देना घाटे का सौदा हो जाता है. इस प्रकार विकास का तार्किक परिणाम बेरोजगारी है. विकास दर ऊंची होने का अर्थ है कि कंपनियां अधिक उत्पादन करके सस्ता माल बेच रही हैं. ऐसा तभी संभव है, जब वे श्रमिकों का उपयोग कम करें. इस तरह विकास और बेरोजगारी साथ-साथ चल रहे हैं.
हमें अर्थव्यवस्था को दो क्षेत्रों में विभाजित कर देना चाहिए. एक ‘विकास क्षेत्र’ तथा दूसरा ‘रोजगार क्षेत्र’. विकास क्षेत्र में पेट्रोलियम, स्टील, रेल, जैसी पूंजी सघन उद्योगों को रखना चाहिए.
इन क्षेत्रों में रोजगार सृजन की संभावनाएं कम होती हैं. इसलिए यहां लक्ष्य अधिकाधिक मात्र में सस्ता उत्पादन होना चाहिए, जिससे हम विश्व बाजार में अपना रुतबा स्थापित कर सकें. ‘रोजगार क्षेत्र’ में बिलकुल अलग नीति लागू करने की जरूरत है. जैसे बुनाई को लें. पावरलूम पर भारी मात्र में टैक्स लगा दिया जाये, तो मशीन से बना कपड़ा महंगा हो जायेगा.
फलस्वरूप हैंडलूम सहज ही सस्ता पड़ने लगेगा. करोड़ों लोगों को हैंडलूम से कपड़ा बुनने में रोजगार मिल जायेगा. सरकार को चाहिए कि नीति आयोग को कहे कि देश में उपलब्ध तमाम तकनीकों का रोजगार ऑडिट करे. देखे कि किन तकनीकों पर न्यून टैक्स लगाने से ज्यादा संख्या में रोजगार उत्पन्न हो सकते हैं.
यह भी देखे कि एक साल में दो करोड़ रोजगार सृजित करने के लिए कितनी तकनीकों पर कितना टैक्स लगाना होगा. तदानुसार टैक्स लगा दें, तो एक पंथ दो काज हासिल हो जायेंगे. टैक्स की वसूली होगी, रोजगार सृजित होंगे और मनरेगा पर किये जानेवाले खर्च की बचत होगी सो अलग.
समस्या वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन के स्तर पर उत्पन्न होगी. भारत में पावरलूम पर टैक्स लगाने से हमारे घरेलू बाजार में कपड़ा महंगा हो जायेगा. फलस्वरूप पावरलूम से चीन में बना सस्ता कपड़ा प्रवेश करेगा. ऐसा हुआ तो हमें दोहरा नुकसान होगा. हमारा हैंडलूम उद्योग बंद हो जायेगा.
हमारा पावरलूम उद्योग भी बंद हो जायेगा, चूंकि हमने उस पर भारी टैक्स लगा दिया है. पावरलूम का कपड़ा महंगा पड़ रहा है. अत: जरूरी होगा कि पावरलूम से बने कपड़े पर भारी मात्र में आयात कर लगाया जाये. ऐसा करनेके लिए डब्ल्यूटीओ संधि में संशोधन भी जरूरी हो सकता है. हमारी सरकार के लिए इसे हासिल करना कठिन नहीं है.
रोजगार की समस्या का विश्व के किसी भी देश के पास समाधान नहीं है. प्रधानमंत्री ने 2022 तक 40 करोड़ श्रमिकों की कार्य क्षमता में सुधार का लक्ष्य रखा है. निश्चित ही स्किल के विकास से वैश्विक स्तर पर अनेक रोजगार उत्पन्न हो सकते हैं. इंटरनेट के माध्यम से ट्रांसलेशन, बिल्डिंग की डिजाइन, कानूनी रिसर्च इत्यादि तमाम कार्यो को भारत में किया जा सकता है.
इंटरनेट के माध्यम से जिन सेवाओं का निर्यात हो सकता है, उन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. हमारे फिटर तथा मैकेनिकों के लिए विश्व के रोजगार के अवसर खुलना कठिन हैं, चूंकि ये सेवाएं दूसरे देश में जाकर ही मुहैया करायी जा सकती हैं.
स्किल डेवलपमेंट के माध्यम से रोजगार उत्पन्न करने के लिए सरकार को चाहिए कि जर्मन, फ्रेंच, चाइनीज तथा जापानी जैसी भाषाओं का भारत में विस्तार करें. स्नातक क्षात्रों के लिए एक विदेशी भाषा को सीखना अनिवार्य बना देना चाहिए. देश के हर जिले में कृषि विज्ञान केंद्रों की तरह विदेशी भाषा केंद्र खोलने चाहिए. विश्वविद्यालयों को निर्देश देना चाहिए कि हर स्नातक को एक स्किल का कोर्स भी कराये. जैसे अंगरेजी के एमए के छात्रों को ट्रांसलेशन का कोर्स कराएं.
स्किल डेवलपमेंट का केंद्र वैश्विक बाजार होना चाहिए. इस दिशा में घरेलू उद्यमों में विशेष रोजगार उत्पन्न नहीं होंगे. देश में तमाम स्किल्ड लोग वर्तमान में ही बेरोजगार हैं. ऐसे में स्किल्ड डेवलपमेंट से केवल टोपी ही बदली जायेगी.
अत: स्किल डेवलपमेंट का लक्ष्य विदेशों में इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध करानेवाली सेवाओं का होना चाहिए. इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर कोई कारगर कदम उठायेंगे, तो हमारे देश के युवा उन्हें प्रणाम करेंगे.