पूर्वोत्तर में संभावना- चंदन कुमार शर्मा

नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (इसाक-मुइवा) यानी एनएससीएन (आईएम) और केंद्र सरकार ने विगत तीन अगस्त को एक संधि पर हस्ताक्षर करके देश के सबसे पुराने उग्रवादी आंदोलन की समाप्ति को लेकर ताजा संभावनाएं पैदा की हैं। यह संधि असल में, आगामी समझौते की एक रूपरेखा है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, यह समझौता आगामी तीन महीने में हो जाएगा। नगा संगठन पिछले कई दशकों से अपने लिए एक स्वतंत्र देश की मांग करते आए हैं। पूर्वोत्तर के जिन-जिन राज्यों में नगा रहते हैं, उन्हें मिलाकर ‘नगालिम’ (नगाओं की मातृभूमि) बनाने की उनकी मांग बहुत पेचीदा है, क्योंकि नगालैंड के अलावा नगा पूर्वोत्तर के और जिन राज्यों में रहते हैं, वे प्रस्तावित नगालिम को अपना क्षेत्र देने का विरोध करते आए हैं। इसमें मणिपुर का हिस्सा ज्यादा है, जिसके चार जिलों को प्रस्तावित नगालिम में शामिल करने की मांग की जाती रही है। हालांकि मणिपुर के नगा क्षेत्रों को अधिक स्वायत्तता देकर इस संकट का हल निकाला गया है। जाहिर है, इससे नगालैंड और मणिपुर की सीमा दोबारा नहीं खींची जाएगी। नगा जिस मातृभूमि की मांग करते आए हैं, वह दरअसल पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम में फैली है। इसका कुछ हिस्सा ऊपरी म्यांमार में भी है।

एक स्वतंत्र और संप्रभु देश की मांग को लेकर ‘नगाओं’ ने नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) के बैनर तले आजादी के बाद से ही आंदोलन शुरू कर दिया था। आंदोलन का नेतृत्व अंगामी जापू फिजो के हाथ में था। कई समझौतों से इस संघर्ष को खत्म करने की कोशिश की गई। वर्ष 1947 में हैदरी समझौता हुआ, तो 1963 में नगालैंड राज्य का गठन किया गया। 1964 में जयप्रकाश नारायण, असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री विमला प्रसाद चालिहा और रेवरेंड माइकल स्कॉट की टीम द्वारा शांति प्रक्रिया शुरू की गई, तो 1975 में शिलांग समझौता हुआ। फिर भी नगा क्षेत्रों में शांति कायम नहीं हो सकी।

वास्तव में, एनएनसी में विभाजन का बड़ा कारण शिलांग समझौता था। इसाक, मुइवा और एस एस खपलांग जैसे नेताओं ने शिलांग समझौते का विरोध किया और इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों को नगाओं का विश्वासघाती बताया। नतीजतन 1980 में एनएनसी में फूट पड़ी और एनएससीएन का गठन हुआ। हालांकि गठन के बाद से एनएससीएन भी कई बार टूट चुका है, जिसके पीछे देश की खुफिया एजेंसियों की बड़ी भूमिका रही है। एनएससीएन में पहला बड़ा विभाजन 1988 में हुआ, जब इसके एक धड़े का नेतृत्व स्वु और मुइवा के पास रहा, तो दूसरे धड़े का नेतृत्व खपलांग ने किया। इसके बाद भी इन संगठनों का विभाजन रुका नहीं, लेकिन मुख्य रूप से इन्‍हीं दो धड़ों का दबदबा रहा। केंद्र के साथ संघर्ष की वजह से यहां सुरक्षा बलों द्वारा बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघन तो किया ही गया, इन संगठनों के आपसी संघर्ष के कारण भी नगा पहाड़ियां हिंसा और रक्तपात के क्षेत्र में बदल गईं।

हालिया संधि असल में, एनएससीएन (आईएम) और केंद्र सरकार के बीच हुई कई दौर की बातचीत का नतीजा है। इसाक और मुइवा की तारीफ करनी चाहिए कि पिछले अट्ठारह वर्षों में उकसावे और रुकावटपैदा करने वाली कई कार्रवाइयों के बाद भी उन्होंने बातचीत का रास्ता बंद नहीं किया। इस समझौतों को लेकर अटकलों का बाजार पहले से ही गर्म था, खासकर पिछले वर्ष नगालैंड में हॉर्नबिल त्योहार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई घोषणा के बाद, कि नगा समस्या का समाधान अगले एक या डेढ़ वर्षों में हो जाएगा।

 

दिलचस्प है कि जिस बातचीत में समझौते पर सहमति बनी, उसे अत्यंत गोपनीय रखा गया। समझौते पर हस्ताक्षर के अंतिम मिनट तक केंद्रीय गृह सचिव भी इससे अंजान थे। हालांकि अभी इस संधि के प्रावधानों को सार्वजनिक नहीं किया गया है, मगर उग्रवादी समूहों से जुड़े या पूर्वोत्तर में उग्रवाद के खात्मे को लेकर प्रयासरत लोगों ने संतुलित प्रतिक्रिया दी है। नगालैंड में भी कोई तब तक इस पर प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार नहीं है, जब तक कि इसके प्रावधान सामने नहीं आ जाते। खुद नगालैंड के मुख्यमंत्री टी आर जेलियांग ने भी कोई अनुमान जताने से इन्कार कर दिया है। नगा होहो (नगाओं की शीर्ष निकाय) के अध्यक्ष भी इस समझौते के प्रावधानों के सामने आने तक इंतजार करने की बात कह रहे हैं।
यानी इस समझौते पर सावधानीपूर्वक प्रतिक्रिया दी गई है। यहां तक कि मणिपुर के नगा बहुल इलाकों और नगालैंड में भी इस पर किसी तरह की खुशी नहीं मनाई गई। इसकी वजह यह है कि इस तरह के समझौते पूर्व में विफल हुए हैं। इसके अलावा, किसी भी नगा सिविल सोसाइटी को इस शांति प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाया गया, जो इन संगठनों को अच्छा नहीं लगा है।

 

अगर इस समझौते में व्यापक स्वायत्तता और कुछ पैकेज के ही प्रावधान रहते हैं, तो सवाल उठेगा कि नगा लोगों ने जो बलिदान दिया है, क्या वह बेकार था। उल्लेखनीय है कि कुछ महीने पहले खपलांग गुट के साथ केंद्र सरकार का संघर्षविराम समझौता टूट गया है, और उसके सदस्य फिर सक्रिय हो गए हैं। मणिपुर में सेना पर हुए हालिया हमले इसके संकेत हैं। वहां इसके अलावा भी कई और गुट हैं। ऐसे में, नगा क्षेत्रों में स्थायी शांति कैसे कायम होगी, यह एक बड़ा सवाल है। इसके अलावा सवाल राजनीतिक भी हैं। कांग्रेस पहले ही इस समझौते पर नाराजगी जाहिर कर चुकी है, क्योंकि इस मसौदे पर हस्ताक्षर से पहले पूर्वोत्तर के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को भरोसे में नहीं लिया गया था।

नगा लोग इस मुद्दे के सम्मानजनक समाधान के इच्छुक हैं। ऐसे में सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि नगा-रिहायशी क्षेत्रों को एक करने की उनकी मांग को किस रूप में लिया जाता है। जाहिर है, नगा समस्या से जुड़े सभी पक्षकारों को संतुष्ट करना एक बेहद मुश्किल काम होगा।

असम के तेजपुर विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर

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