कराहते करघे अब करुण कहानी भर हैं– अमितांशु पाठक

अभी कुछ ही दिन हुए, जब वाराणसी में फाकेहाली से हताश एक बुनकर दंपति ने अपनी तीन बच्चियों की हत्या कर दी। पर विदर्भ के किसानों की आत्महत्या की तरह बनारस के बुनकरों की आर्थिक तंगी, बेकारी, गरीबी और कुपोषण को मीडिया में सुर्खियां नहीं मिल सकीं। इसलिए दुनिया भर में फैले बनारसी साड़ियों के शौकीन नहीं जानते कि यहां अनेक बुनकर परिवारों को दो जून का भरपेट भोजन और रहने को छत तक मयस्सर नहीं है। अनेक परिवारों के लोग शिफ्ट में सोते हैं। एक सोकर उठेगा, तो दूसरा सोएगा। मानवाधिकारों से जुड़ी एक संस्था ने इनके 759 बच्चों के कुपोषित और 92 के अति कुपोषित और कुपोषण से मरने वाले बच्चों की एक सूची शासन को दी। प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा, जो स्थानीय सांसद भी हैं, पर कुछ नहीं हुआ।

लेकिन यह हाल सिर्फ वाराणसी का नहीं है, पूरे देश में सभी जगह हथकरघा पर काम करने वाले बुनकरों का यही हाल है। हथकरघा उद्योग देश में कृषि के बाद आर्थिक गतिविधियों का दूसरा सबसे बड़ा असंगठित क्षेत्र है। देश में कपड़े की कुल जरूरत के महज 11 प्रतिशत की आपूर्ति इस हथकरघा उद्योग से होती है। यानी देश के लोग अपना तन ढकने के लिए ज्यादातर पावरलूम के कपड़े पसंद करते हैं। ताजा हथकरघा गणना (हैंडलूम सेंसस) के अनुसार, देश में लगभग 44 लाख हथकरघे इस उद्योग में लगे हैं। भले ही देश की कपडे़ की जरूरत पूरी करने के मामले में हथकरघा उद्योग हाशिये पर हो, लेकिन यह देश की लगभग दो करोड़ आबादी की आजीविका का मुख्य जरिया है। इस उद्योग के ज्यादातर लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। इनके परिवारों की औसत आमदनी सालाना 36,498 रुपये ही आंकी गई है। तमाम सरकारी योजनाओं, कर्ज योजनाओं, पुनर्वित्त योजनाओं और राहत घोषणाओं के बावजूद उनकी माली हालत में कोई सुधार नहीं आ रहा है। उनके लिए बहुत से कल्याण योजनाएं भी बनीं, लेकिन कभी कुछ नहीं हुआ। उनके काम को विश्व बाजार तक पहुंचाने की तमाम कोशिशों का भी कोई सीधा और बड़ा लाभ इन परिवारों को कभी नहीं मिला है। बरसों बरस से यह जुमला सुनने को मिल रहा है कि जुलाहों को बिचौलियों से बचाया जाएगा, लेकिन यह काम कभी नहीं हुआ।

 

इसीलिए परंपरागत तौर पर इस काम को करने वाले जुलाहे दूसरे काम को अपनाने की ओर बढ़ रहे हैं। जहिर है, इस वजह से देश में हथकरघे की संख्या भी लगातार घट रही है। लेकिन इस बदलाव में एक दिलचस्प बात यह है कि देश में महिला बुनकरों की संख्या बढ़ रही है। जिसका अर्थ यह है कि परिवार के भीतर अब आमतौर पर महिलाएं हथकरघों की परंपरा को संभाल रही हैं, जबकि जुलाहा परिवार के पुरुष घर से बाहर दूसरी आजीविकाओं की ओर बढ़ रहे हैं। बावजूद इसके कि उनके काम का बहुत सारा महिमा मंडन किया जाता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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