हमेशा की तरह रेलवे फिर से अपनी जवाबदेही से बचने की कोशिश में लगा है, जबकि सच बात यह है कि मुसाफिरों की मौतों की जिम्मेदारी रेलवे की ही बनती है, कारण कुछ भी हों। तत्कालीन रेलमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जब 23 नवंबर 1956 को तूतीकोरण एक्सप्रेस की दुर्घटना के बाद त्यागपत्र दिया था, मसला बाढ़ ही था। भारी बारिश और बाढ़ से एक पुल क्षतिग्रस्त होने के कारण वह हादसा हुआ था। इसमें काफी मौतें हुई थीं और पंडित नेहरू तथा दिग्गज नेताओं की मान-मनौव्वल के बाद भी शास्त्रीजी ने अपना इस्तीफा वापस नही लिया था। यहां मसला त्यागपत्र का नहीं, जवाबदेही का बनता है।
भारतीय रेल सुरक्षा और संरक्षा के बड़े दावे करती है। हर रेल मंत्री के एजेंडे पर इसी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात कही जाती है। दावा शून्य दुर्घटना का होता है, लेकिन रेल दुर्घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। पिछले तीन सालों में रेलवे की 225 दुर्घटनाओं में 297 मुसाफिरों ने जान गंवाई और इसमें रेलवे की 124 करोड़ की संपत्ति का नुकसान हुआ। जांच में पाया गया कि इनमें से 167 दुर्घटनाएं रेलवे कर्मचारियों की गलती से हुई हैं। जबकि रेलवे का दावा है कि हाल के सालों में उसका संरक्षा रिकॉर्ड सुधरा है।
रेलवे की कुल दुर्घटनाओं में 40 फीसदी की वजह 18785 मानव रहित समपार या लेबल क्रॉसिंग हैं। आजादी के इतने सालों के बाद भी इन पर चौकीदारों की तैनाती नहीं की जा सकी। 2015-16 में इस मद में केवल 305 करोड़ की राशि रखी गई है, जबकि सारे लेबल क्रॉसिंग पर चौकीदार तैनाती की लागत आनी है 50,000 करोड़ रुपए। सुरक्षा से ही जुड़ा रेल पथ नवीकरण का मसला चिंता का विषय है। संसद की रेल संबंधी स्थायी समिति का मानना है कि इस समय 5300 किमी तक का रेल पथ नवीकरण का काम बकाया है और यह बेहद चिंताजनक स्थिति है।
लेकिन तमाम नकारात्मक पक्ष के बावजूद भारतीय रेल देश की जीवनरेखा बनी हुई है। यह विश्व का सबसे बड़ा परिवहन तंत्र है और इसके 8000 से अधिक स्टेशनों से रोज 2.30 करोड़ से अधिक मुसाफिर (ऑस्ट्रेलिया की पूरी आबादी के बराबर लोग) सफर करते हैं। भारतीय रेल का 65000 किमी लंबा नेटवर्क पृथ्वी की परिधि के करीब डेढ़ गुने से अधिक है। इसी साल रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने रेल बजट 2015-16 के साथ श्वेत पत्र भी प्रस्तुत किया था। इसमें स्वीकार किया गया था कि बीते अनेक सालों से भारतीय रेल पूंजी निवेशकी किल्लत से जूझ रही है। इस नाते क्षमता विस्तार और गुणवत्ता में कमी आई है।
रेलों पर दबाव बढ़ता जा रहा है, लेकिन समर्थन घट रहा है। आजादी के बाद से अब तक भारतीय रेल के माल लदान में 1344 फीसदी और यात्री संख्या में 1642 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन रेलमार्ग किमी में महज 23 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। भारतीय रेल का यातायात घनत्व विश्व मानकों के लिहाज से काफी है लेकिन यातायात की वृद्धि के अनुकूल नही। ये आंकड़े गंभीर चुनौतियों की ओर इशारा करते हैं। आज सरकार ही मानती है कि भारतीय रेल माल और यात्री सेवाओं की मांग को पूरा करने में असमर्थ है।
यह छिपी बात नहीं है कि सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है और साफ-सफाई, समयपालन के साथ सुरक्षा-संरक्षा सभी प्रभावित हो रहे हैं। भारतीय रेल के आधुनिकीकरण की गति धीमी रहने के नाते उसे कई चिंताजनक पक्षों से गुजरना पड़ रहा है। भारतीय रेल को सभी इलाकों में क्षमता बढ़ाने की जरूरत है। आज उसकी लंबित 362 परियोजनाओं को पूरा करने के लिए ही करीब पांच लाख करोड़ की दरकार है। परियोजनाओं की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। निर्माण और भूमि की लागत कई गुना बढ़ी है। पूर्वोत्तर, कश्मीर और नक्सल प्रभावित राज्यों में कानून-व्यवस्था की दिक्कतों के नाते भी रेल परियोजनाएं देरी का शिकार हुई हैं।
ऐसा नहीं है कि भारतीय रेल ने सुरक्षा और संरक्षा की दिशा में कोई कदम नहीं उठाए हैं। इनमें टक्कररोधी उपकरणों की स्थापना, ट्रेन प्रोटेक्शन वॉर्निंग सिस्टम, ट्रेन मैनेजमेंट सिस्टम, सिग्नलिंग प्रणाली का आधुनिकीकरण, संचार प्रणाली में सुधार प्रमुख हैं। लेकिन ये छोटे-छोटे खंडों तक सीमित हैं, जबकि जरूरत पूरी प्रणाली की ओवरहॉलिंग की है। इस पर पूरा फोकस न कर पाने की बड़ी वजह यह है कि आज रेलवे कई तरह के तनावों से गुजर रही है और उसका बढ़ता संचालन व्यय बेलगाम होता जा रहा है।
बेशक आज के हालात में रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए काफी काम करना जरूरी है। रेलवे आधुनिकीकरण के लिए सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में बनी उच्चस्तरीय समिति ने पांच सालों में 19000 किमी रेल लाइनों के नवीनीकरण और 11250 पुलों को आधुनिक बनाने को कहा था। वहीं परमाणु वैज्ञानिक डॉ. अनिल काकोदकर की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय संरक्षा समीक्षा कमेटी ने रेलवे की संरक्षा की तस्वीर को चिंताजनक बताते हुए 106 अहम सिफारिशें की थीं। रेलवे की सुरक्षा-संरक्षा को चाकचौबंद करने को एक लाख करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत बताते हुए समिति ने सरकार के अधीन रेलवे संरक्षा प्राधिकरण बनाने को भी कहा था। काकोदकर समिति ने सुरक्षा संबंधी ढांचा बेहतर बनाने, जनशक्ति के उचित प्रबंधन, कलपुर्जों की कमी दूर करने, रोलिंग स्टॉक के आधुनिकीकरण और गाड़ियों में आग की रोकथाम के लिए उपाय करने को कहा था। लेकिन बहुत कम काम आगे बढ़ा।
रेल कर्मचारियों की संख्या जो 1991 में 18.7 लाख थी, अब घटकर 13 लाख के करीब हो गई है। ढाई लाख पद खाली पड़े हैं, जिनमें से डेढ़ लाख तो बेहद जरूरी संरक्षा श्रेणी के हैं। इन्हें खाली रखना सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करना है।रेलवेको इस बात की परवाह भी नहीं है कि काफी संख्या में ड्राइवरों को 10 से 14 घंटे तक ड्यूटी करनी पड़ रही है। साथ ही रेलवे के सात उच्च घनत्व वाले मार्गों के 212 खंडों में लगभग 141 खंडों का क्षमता से अधिक उपयोग हो रहा है। करीब 3000 रेल पुलों को तत्काल बदलने की जरूरत है। मगर रेलवे को इसकी परवाह नहीं है। 1995 में हुई पिछली सदी की सर्वाधिक भीषण फिरोजाबाद दुर्घटना के बाद रेलवे मंत्रालय ने संरक्षा के लिए काफी धन खर्च किया। पर एक के बाद एक बड़ी दुर्घटनाओं का होना बताता है कि रेलवे की कोशिशों में कमी है और नए सिरे से ठोस योजना बनाने की जरूरत है।
(लेखक रेल मंत्रालय के पूर्व सलाहकार हैं)