रेलवे विभाग की ओर से एक ‘फ्लश फ्लड" का मुहावरा गढ़ा गया। इसका मतलब है कि किसी बांध से यकायक पानी छोड़ा जाना। पता लगा है कि घटनास्थल से बीस किलोमीटर की दूरी पर एक बांध है। लेकिन उसके इंजीनियर का कहना है कि हमने कोई पानी नहीं छोड़ा। फिर भारी वर्षा तो एक नेचुरल फिनॉमेना है। क्या रेलवे विभाग मौसम विभाग की भारी वर्षा विषयक सूचनाओं को अपनी सुरक्षा संस्कृति का आधार नहीं बनाता? मौसम विभाग का साफ कहना है कि इस प्रसंग में उन्होंने रेलवे डीआरएम को भारी वर्षा की चेतावनी दे दी थी। तब क्या इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया गया?
यदि हम पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुई रेल दुर्घटनाओं का निष्पक्ष आकलन करें तो उनमें मानवीय गलती का तत्व साफ नजर आता है। लेकिन जब इन दुर्घटनाओं का वस्तुपरक आकलन न करके राजनीतिकरण किया जाता है और इसकी तार्किक परिणति व्यक्तिपरक यानी रेलमंत्री के इस्तीफे की मांग पर मात्र हल्लाबोल में बदल जाती है, तब मूल कारण पीछे छूट जाते हैं। ये दुर्घटनाएं मात्र हादसा होती हैं या व्यवस्था में आपराधिक चूक? केंद्र में बैठी प्रत्येक सरकार अपने रेल बजट में रेलवे तंत्र के आधुनिकीकरण की बात करती है। रेल किराया बढ़ाने के पीछे यात्रियों को सुरक्षा और सुविधा देने का दावा किया जाता है। पिछले दिनों ही 14 फीसदी तक किराया बढ़ाया गया है। जहां तक सुविधा का सवाल है, तो उससे पहले तो सुरक्षा आती है। क्या हम रेलवे की पटरियों, पुलों-पुलियों और उसके कम्युनिकेशन सिस्टम की सतत मॉनिटरिंग करते हैं? रेलवे में एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक पैदल चलकर मानसून पेट्रोलिंग होती है। क्या इस ट्रैक पर ऐसा किया गया? क्या रेलवे के आधुनिकीकरण के दावे में प्राथमिकताओं के सही आवंटन का ध्यान रखा जाता है?
यदि हम हरदा के मौजूदा हादसे को प्रथमदृष्टया सरसरी तौर पर देखें तो यह सवाल उठता है कि संबंधित पुल को बहुत पहले असुरक्षित घोषित कर दिया गया था, तब वहां से भारी बारिश के दौरान दो ट्रेनें तेज रफ्तार से क्यों निकलीं? जिस पुलिया पर दो अप व डाउन ट्रेनें दुर्घटनाग्रस्त हुईं, उसी पर से मात्र आठ मिनट पहले एक और ट्रेन निकली थी। यदि पुलिया पर कुछ असामान्य था, तो फिर इन दोनों दुर्घटना वाली ट्रेनों को इसकी सूचना क्यों नहीं दीगई? पानी तो धीरे-धीरे बढ़ता है और रेल पटरियों के नीचे की गिट्टी-मिट्टी एकदम नहीं बहती।
आजकल ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) की आंख अंतरिक्ष से लेकर रसातल तक है। क्या रेलवे के पास जीपीएस निगरानी सुविधा नहीं है? क्या उनका कम्युनिकेशन सिस्टम फाइटिंग फिट नहीं रहता? हम बुलेट ट्रेन जरूर चलाएं, लेकिन पहले अकुशल प्रबंधन और पुरातनकालीन रेलवे संस्कृति को सामान्य तो बनाएं, आधुनिकीकरण बाद की बात है। इस रेलवे दुर्घटना के हताहतों की वास्तविक संख्या तो बहुत बाद में पता चलेगी। कुछ छिपाया और कुछ उछाला जाएगा। मुआवजे पर राजनीति होगी। राजनेताओं के वाद-प्रतिवाद होंगे। तमाम पिछली जांचों का इतिहास बताता है कि उनके नतीजतन जर्जर यथास्थिति में शायद ही कोई सुधार हुआ हो। लालबहादुर शस्त्री का इस्तीफा तो प्रतीकात्मक था, क्या उससे रेल व्यवस्था सुधरी? इसलिए रेल मंत्री का इस्तीफा नहीं मांगें। शीर्ष राजनेता घटनास्थल पर जाने की होड़ न करें, क्योंकि उससे राहत कार्यों में व्यस्त लोग वीआईपी सेवा में लग जाते हैं। फौरी सवाल बचाव और राहत का है, जिसमें शासकीय मशीनरी बहुधा पिछड़ जाती है। उससे अच्छा काम तो स्थानीय लोग कर लेते हैं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)