एक भाषण कितना बड़ा बदलाव ला सकता है! बेशक यह नेहरू के अविस्मरणीय भाषण ‘नियति के साथ भारत की भेंट’ और मार्टिन लूथर किंग की भावनात्मक प्रेरणा ‘मेरा एक सपना है’ के स्तर का न हो, लेकिन बीती 14 जुलाई को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शशि थरूर का पंद्रह मिनट का भाषण भारत में 200 वर्षों के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन पर हाल के दिनों का सबसे तीक्ष्ण, प्रभावशाली और कटु आलोचना से पूर्ण था। इसने देश और विदेश में विभिन्न पीढ़ियों के लोगों को छुआ। इसलिए शशि, जो पिछले दो वर्षों से गलत वजहों के कारण सुर्खियों में थे, अचानक भारतीयों, खासकर ट्विटर हैंडल करने वाले लोगों के प्रिय बन गए। 48 घंटे से भी कम समय में करीब दसियों लाख लोगों ने उन्हें ‘लाइक’ किया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी सार्वजनिक रूप से उनकी वक्तृत्व कला की प्रशंसा की। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई सांसद भी उन्हें सराहने में पीछे नहीं रहे। एक बड़ा छक्का मारकर शशि ने अपने विरोधियों को चुप करा दिया है। विडंबना देखिए कि उनकी अपनी ही पार्टी उन्हें चुप कराना चाहती है। यह कितने अफसोस की बात है!
उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि औपनिवेशिक काल के दौरान अंग्रेजों को भारत में किए गए अन्याय की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और हर्जाने का भुगतान अगर न भी करें, तो ‘सॉरी’ कहकर माफी मांगनी चाहिए। खैर, अगर ब्रिटिश सरकार उनकी सलाह को तार्किक निष्कर्ष पर लेती है, तो दुनिया के तीन चौथाई हिस्से से, जहां औपनिवेशिक शासन के दौरान सूर्य नहीं डूबता था, माफी मांगने में उन्हें काफी समय लग जाएगा।
एक पुरानी कहावत है कि दान की शुरुआत से घर से होती है। यदि अंग्रेजों को अपने दो सौ वर्षों के शासन के दौरान भारत में की गई तमाम गलतियों के लिए माफी मांगनी और प्रायश्चित्त करना चाहिए, तो दो हजार वर्षों से हिंदू समाज की ऊंची जातियों ने निचली जातियों के साथ जो अन्याय, क्रूरताएं और अमानवीय अपमान किया है, उसके बारे में क्या कहा जाए? क्या जान-बूझकर और व्यवस्थित ढंग से उन्हें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शारीरिक एवं मानसिक आघात पहुंचाने की जिम्मेदारी ऊंची जातियों को नहीं लेनी चाहिए? वास्तव में उन्होंने जो अन्याय किया, वह काफी गंभीर और भयावह था। अंग्रेजों का अन्याय पुर्तगाली या स्पेन जैसे अन्य उपनिवेशवादी की तुलना में लगभग समान या अपेक्षाकृत हल्का था। श्वेत अमेरिकियों ने अश्वेतों के साथ काफी निर्दय और अन्यायपूर्ण व्यवहार किया, लेकिन उनमें से ज्यादातर अफ्रीका से लाए गए थे। जबकि हिंदू समाज की ऊंची जातियों ने अपने ही भाइयों, अपने ही देश के लोगों के साथ बिना किसी अपराध के इतने लंबे समय तक ऐसा अमानवीय व्यवहार किया!
इन वर्षों में उन्होंने निचली जातियों को हमेशा के लिए अपने दमन का शिकार और गुलाम बनाए रखने के लिए कई तरह की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक सूक्तियां तैयार कीं। समाज के एक पूरे हिस्से को यह कहना कि उन्हें संपत्ति, शिक्षा का कोई अधिकार नहीं था और उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य बिना प्रतिरोध किए ऊंची जातियों की सेवा करना था, यह किसी भी संभावित मुक्ति के द्वार को बंद करने जैसा था।
अपने शासन के चरम दिनों में भी क्या कभीअंग्रेजों ने ऐसा आदेश दिया था कि निचली जातियों के लोग जब सड़कों पर चलें, तो अपनी कमर में एक छोटी घंटी के साथ झाड़ू बांधकर चलें, ताकि सवर्ण लोग उसकी आवाज सुनकर सचेत हो जाएं और अपवित्र होने से बच जाएं, जैसा कि सख्त कानून प्रबुद्ध गुप्त शासन के दौरान किसी अन्य रूप में था? निचली जातियों के लोग गांवों और शहरों के बाहरी इलाकों में रहने के लिए अभिशप्त थे, उन्हें न तो आम कुओं से पानी लेने की अनुमति थी और न ही वे ऊंची जातियों द्वारा बनाए गए मंदिरों में पूजा कर सकते थे। इससे भी बदतर बात यह कि शोषण की इस व्यवस्था को वंशानुगत बना दिया गया, जिसके मुताबिक निचली जाति के परिवारों में जन्म लेने वाले को पीढ़ी दर पीढ़ी इन अमानवीय स्थितियों में जीना पड़ता था। इससे कैसी दुर्बल और अपमानजनक मनोवैज्ञानिक हीन भावना निचली जातियों के लोगों में पैदा हुई होगी?
कोलंबिया यूनिवर्सिटी से लौटने के बाद डॉ भीमराव अंबेडकर के साथ जो व्यवहार किया गया था, उसे सुनकर किसी के रोंगटे खड़े हो सकते हैं। उम्मीद के विपरीत ये अन्याय एवं क्रूरताएं दुर्भाग्य से देश के स्वतंत्र होने के बाद भी नहीं रुकीं। बिहार में भूमिहीन मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने जैसी छोटी-सी मांग का बहाना बनाकर हत्या, निचली जातियों की झोंपड़ियों में आग लगाना, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ स्वतंत्र भारत में निचली जातियों के दमन की चौंकाने वाली कहानियां हैं।
बेशक विभिन्न सरकारों द्वारा ग्रामीण भारत में सकारात्मक कार्रवाई करने और विकास योजनाएं चलाने से निचली जाति के लोगों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है। सैकड़ों गांवों में छुआछूत अब भी जिंदा है। अपुष्ट आंकड़ों के मुताबिक पचास लाख से ज्यादा बंधुआ मजदूर और बाल श्रमिक हैं। पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने एक बार संसद में बताया था कि एक वर्ष में देश में दलितों के शारीरिक उत्पीड़न के साढ़े तेरह हजार से ज्यादा मामले दर्ज हुए। चूंकि चार में से एक मामले ही दर्ज हो पाते हैं, इसलिए वास्तविक संख्या पचास हजार से ज्यादा हो सकती है!
तो निचली जातियों के साथ पिछले दो हजार वर्षों से हो रहे अन्याय के लिए किसे माफी मांगनी चाहिए? क्या किसी को जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? वास्तव में, भारत में सदियों से दलितों के साथ जो अन्याय हुआ, उसके लिए न तो कोई माफी मांगेगा और न ही कोई जिम्मेदारी लेगा। संसद को, जो पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है, क्या निचली जातियों के साथ हुए अन्याय के लिए बिना शर्त माफी का एक प्रस्ताव नहीं पारित करना चाहिए? कम से कम वह एक प्रतीकात्मक प्रायश्चित तो होगा।