राजनीतिक दलों की भी हो जवाबदेही- देवेन्द्र सिंह अस्वाल

सांविधानिक और वैधानिक व्यवस्था से क्या राजनीतिक दल परे हैं या उन्हें भी उसी सांविधानिक या कानूनी व्यवस्था का पालन करना जरूरी है, जिसका वे निर्वाचन आयोग को आश्वासन देते हैं और जिनकी मजबूती के लिए वे मतदाताओं से ‘मत’ की अपेक्षा करते हैं? हैरानी की बात है कि जो राजनीतिक दल पारदर्शिता, लोकतांत्रिक व्यवस्था और कानून के राज की दुहाई देते हैं, वे सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून से खुद को परे रखना चाहते हैं और दलील देते हैं कि वे सार्वजनिक प्राधिकार (पब्लिक ऑथरिटी) की परिधि में नहीं आते।

आरटीआई का उपयोग करते हुए मई, 2011 में शुभा अग्रवाल और अनिल बैरवाल ने केंद्रीय सूचना आयोग में शिकायत की कि छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से उन्होंने जो सूचनाएं मांगी थी, वह उन्हें यह कहकर नहीं दी गई कि वे आरटीआई के दायरे में नहीं आते। शिकायतकर्ताओं का दावा था कि राजनीतिक दलों को सांविधानिक दर्जा प्राप्त हैं, इसलिए वे आरटीआई की परिधि में आते हैं। उन्होंने दलील दी कि संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत राजनीतिक दलों को यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपने सांसदों/विधायकों को अयोग्य घोषित कर सकते हैं, उन्हें बाध्य करते हैं कि संसद​/ विधानमंडल में वे किस तरफ मत देंगे और किन नीतियों के समर्थन या विरोध में बोलेंगे, सरकार को बनाने या अपदस्थ करने और कानून बनाने में उनकी विशिष्ट भूमिका होती है, जिसका प्रभाव नागरिकों पर पड़ता है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत राजनीतिक दलों को वैधानिक दर्जा प्राप्त है। केंद्र और राज्य सरकार राजनीतिक दलों को आर्थिक सहायता देती है और वे आयकर से भी मुक्त हैं। शिकायतकर्ताओं ने सूचना आयोग के समक्ष उन्हें दिए गए बंगले, दूरदर्शन और रेडियो पर मुफ्त प्रसारण समय आदि का विवरण देते हुए कहा कि उनका स्वरूप व प्रकृति पब्लिक ऑथरिटी की तरह का है, इसलिए वे आरटीआई के दायरे में आते हैं। माकपा को छोड़कर अन्य दलों ने इन दलीलों का खंडन किया।

तमाम तथ्यों का अवलोकन करने के बाद सूचना आयोग ने फैसला दिया कि सभी राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आते हैं। पर पार्टियों ने आयोग के फैसले का पालन नहीं किया, तो आयोग ने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि वांछित शक्ति के अभाव में वह इस कानून को लागू कराने में असमर्थ है। नतीजतन शिकायतकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने सभी छह राष्ट्रीय दलों और चुनाव आयोग से अपना पक्ष रखने के लिए कहा है। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है और लोगों को उम्मीद है कि शीर्ष अदलात के फैसले से लोकतांत्रिक व्यवस्था को नया दिशा-निर्देश मिलेगा।

चूंकि पारदर्शिता, सुशासन, जवाबदेही और विधि के शासन के नाम पर ये दल अपनी राजनीति करते हैं, ऐसे में उनका लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल मानकों को पूरा न करना हास्यास्पद है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता, जवाबदेही जरूरी है, ताकि चुनाव के खर्चे कम हों, उनकी आय की स्वतंत्र लेखा परीक्षा हो और राजनीति में आपराधिक तत्वों की घुसपैठ पर अंकुश लगे। यह तभी संभव है, जब वे सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आएं।

-लेखक भारतीय संसदमें अतिरिक्त सचिव हैं

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