हालांकि एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़े को दो श्रेणियों-किसानों एवं कृषि मजदूरों, में बांटने का साहसिक प्रयास किया है, ताकि यह दिखाया जा सके कि किसान आत्महत्या की दर में 50 फीसदी की गिरावट आई है। जबकि ऐतिहासिक रूप से कृषि मजदूरों को किसानों की श्रेणी में ही गिना जाता रहा है। यदि किसानों (5,650) और कृषि मजदूरों (6,710) की आत्महत्या के आंकड़ों को जोड़ा जाए, तो मौत का आंकड़ा 12,360 है, जो वर्ष 2013 के आंकड़ों से पांच फीसदी ज्यादा है।
खेतों पर नाचती मौत भयानक कृषि संकट को प्रतिबिंबित करती है, जो कई दशकों से जारी है। एक के बाद एक आने वाली हर सरकार ने -चाहे केंद्र की हो या राज्यों की-कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के बड़े वायदे किए, पर किसान आत्महत्या के आंकड़ों में बदलाव उस क्षेत्र की मुश्किलों और जानबूझकर की गई उपेक्षा को दर्शाता है। किसानों को केवल दो राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया गया है-एक वोट बैंक और दूसरे भूमि बैंक के रूप में। हालात में सुधार के कोई लक्षण न देखकर अब पिछले कुछ महीनों से उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब और हरियाणा में किसानों की आत्महत्या में नए सिरे से तेजी देखी गई है।
अगर इन आंकड़ों के अनकहे निहितार्थ को समझें, तो देश का ‘खाद्यान्न कटोरा’ कहे जाने वाले पंजाब समेत सभी राज्यों में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े को कमतर बताने की कोशिश की गई है। यह छत्तीसगढ़ द्वारा वर्ष 2011 में शुरू की गई प्रवृत्ति का अनुकरण है, जब उसने राज्य में शून्य किसान आत्महत्या दिखाई थी। लेकिन 2014 में वहां यह आंकड़ा उछलकर 755 हो गया।
एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2014 में पंजाब में केवल 22 किसानों ने आत्महत्या की। अगर कृषि मजदूरों को भी जोड़ लें, तो कुल किसान आत्महत्या का आंकड़ा 64 आता है। इसमें राज्य की वास्तविक स्थिति को समग्र रूप में कम करके बताया गया है। संगरूर एवं मनसा जिले के पंचायत के मात्र चार गांवों के आंकड़े बताते हैं कि वहां पिछले पांच वर्षों में 607 किसानों ने आत्महत्या की है, जिनमें से 29 मौतें नवंबर, 2014 से अप्रैल, 2015 के बीच दर्ज की गई हैं। इसी तरह, महाराष्ट्र में विदर्भ जन आंदोलन समिति ने एनसीआरबी के आंकड़े को चुनौती दी है। असल में गणना की पद्धति में कई खामियां हैं। जैसे, महिलाओं की मौत को किसानों की श्रेणी में नहीं रखा गया है, क्योंकि ज्यादातर मामलों में जमीन उनके नाम नहीं हैं।
इन आत्महत्याओं का सबसे बड़ा कारण ऋणग्रस्तता और दिवालियापन (22.8 फीसदी) है, उसके बाद पारिवारिक समस्या (22.3 फीसदी), और खेती से संबंधित मुद्दे (19 फीसदी) जिम्मेदार हैं। चंडीगढ़ स्थित सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल ऐंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (सीआरआरआईडी) द्वारा किए गए अध्ययन केअनुसार, पिछले एक दशक में पंजाब में किसानों के औसत कर्ज में 22 गुना की वृद्धि हुई है। वर्ष 2004 में प्रति परिवार औसत कर्ज 0.25 लाख था, जो 2014 में बढ़कर 5.6 लाख हो गया। इस सूची में सबसे शीर्ष पर छत्तीसगढ़ है, जहां प्रति किसान परिवार औसत कर्ज 7.54 लाख रुपये है, उसके बाद केरल में यह आंकड़ा 6.48 लाख रुपये प्रति परिवार है। पंजाब के किसानों के ऊपर जितना कर्ज है, वह राज्य की कृषि जीडीपी से 50 फीसदी ज्यादा है। सीआरआरआईडी के एक अन्य अध्ययन के अनुसार, पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों के 98 फीसदी परिवार ऋणग्रस्त हैं और प्रति परिवार का औसत कर्ज उनकी कुल आय का 96 फीसदी है। अगर यह स्थिति पंजाब के किसानों की है, तो कल्पना कीजिए कि देश के अन्य हिस्सों के किसानों की क्या हालत होगी!
किसानों की ऋणग्रस्तता क्यों बढ़ रही है, कभी इसके बारे में अध्ययन नहीं किया गया, सिवाय इसके कि ज्यादा सूद वसूलने वाले साहूकारों से कितना ऋण आता है। बेशक संस्थागत वित्त की कमी एक बड़ी बाधा है, लेकिन बढ़ती ऋणग्रस्तता का सबसे बड़ा कारण कृषि आय का घटते जाना है। उत्तर प्रदेश के एक सामान्य किसान के लागत-खर्च का विश्लेषण कीजिए। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के ताजा अनुमानों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में गेहूं की खेती से एक किसान परिवार को कुल 10,758 रुपये की आमदनी होती है। चूंकि गेहूं को तैयार होने में छह महीने का समय लगता है, तो एक किसान परिवार की प्रति महीने की आमदनी 1,793 रुपये हुई। यदि गेहूं की खेती करने वाले किसान की आय की यह स्थिति है, तो हम आखिर किसानों की कैसी जीविका सुरक्षा की बात करते हैं।
हम समझ सकते हैं कि क्यों नियमित अंतराल पर इतनी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करते हैं। जो इतने साहसी नहीं होते, वे या तो अपने अंग बेचते हैं या खेती छोड़ना पसंद करते हैं और शहर जाकर दिहाड़ी मजदूर का काम ढूंढते हैं। यह तर्क सामाजिक-आर्थिक सर्वे के निष्कर्ष से मेल खाता है, जो बताता है कि ग्रामीण इलाकों के 67 करोड़ लोग प्रति दिन 33 रुपये से कम पर गुजारा करते हैं। कुछ अन्य अध्ययन भी बताते हैं, करीब 58 फीसदी किसान भूखे सोते हैं और 62 फीसदी के पास मनरेगा जॉब कार्ड है। कृषि क्षेत्र के इस गंभीर संकट को दबाने के बजाय एनसीआरबी के आंकड़े को वास्तव में किसानों की खुदकुशी को रोकने के लिए नीति तैयार करने में सरकार की मदद करनी चाहिए। यदि सशस्त्र बलों में एक हजार जवानों की मौत रक्षा मंत्रालय को जरूरी कदम उठाने पर मजबूर कर सकती है, तो हैरानी की बात है कि पिछले बीस वर्षों में तीन लाख के करीब किसानों की आत्महत्या सरकारों को झकझोरने में नाकाम क्यों रही!