भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर काफी राजनीतिक आक्रामकता दिखाने (अब तक तीन बार अध्यादेश लाया जा चुका है) के बाद भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार बहुत नरम दृष्टिकोण अपनाती दिख रही है और उसने कहा है कि जो राज्य विकास कार्यों के लिए बड़े पैमाने पर भूमि का अधिग्रहण करना चाहते हैं, वे राज्य के कानून में संशोधन लाने एवं राष्ट्रपति की स्वीकृति पाने के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह एनडीए की एक नई रचनात्मक सोच है, जिसने देर से माना है कि भूमि वास्तव में राज्य का विषय है और मुख्यमंत्रियों को विकास कार्यों के लिए कृषि भूमि अधिग्रहण की राजनीतिक जिम्मेदारी लेनी होगी।
वास्तव में यदि आप 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को देखें, जिसे संसद में सर्वसम्मति से पारित किया गया था, तो उसमें राज्यों को ‘सार्वजनिक उद्देश्यों’ के लिए भूमि अधिग्रहण का दायरा बढ़ाने के लिए विशिष्ट संसोधनों के साथ अपना कानून बनाने का अधिकार है, बशर्ते कि वे 2013 के कानून में दिए गए मुआवजे के तत्वों को बरकरार रखते हों।
इसलिए एनडीए ने कहा है कि अगर कोई राज्य विकास के लिए काफी जमीन अधिगृहीत करता है, तो उसे यह राजनीतिक जोखिम उठाना होगा। प्रधानमंत्री की यह एक बहुत ही चतुर रणनीति है। पर सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री ने छह महीने पहले यह रणनीति क्यों नहीं अपनाई। हाल ही में भाजपा के पूर्व नेता और पिछली एनडीए सरकार के कैबिनेट मंत्री अरुण शौरी ने एक इंटरव्यू में कहा कि मोदी के पद संभालने के पहले ही उन्होंने उन्हें यह सुझाव दिया था। शौरी ने तर्क दिया कि संविधान के तहत राज्यों को भूमि एवं श्रम पर अपना कानून बनाने का अधिकार है। वास्तव में इस बहस के और गर्माने की संभावना है, क्योंकि प्रधानमंत्री ने भूमि अधिग्रहण कानून पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों से उनके विचार मांगे हैं।
आज कई बड़े राज्यों में भाजपा का शासन है, जो देश की जीडीपी में कुल 50 फीसदी का योगदान करते हैं। भाजपा के मुख्यमंत्री पहल कर यह दिखा सकते हैं कि विकास कार्यों के लिए कृषि भूमि का अधिग्रहण कैसे किया जाए कि किसानों को भी फायदा हो। यदि भाजपा द्विपक्षीय लाभ के इस सूत्र को साबित कर पाती है, तो दूसरे राज्य भी उसका अनुसरण करेंगे। यहीं पर एनडीए को अपनी नेतृत्व क्षमता दिखानी होगी।
यह स्पष्ट था कि क्यों नीति आयोग की बैठक में मौजूद प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक के संदर्भ में ‘संघवाद की भावना’ की दुहाई दे रहे थे। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री, दोनों ने तर्कसंगत छवि पेश की, क्योंकि पिछले एक महीने में राजनीतिक हालात नाटकीय ढंग से बदल गए हैं। मोदी सरकार कई विवादों मेंघिर गई है, जिसमें केंद्र एवं राज्यों के शीर्ष भाजपा नेता शामिल हैं। केंद्र में तेजी से बदलते राजनीतिक हालात, आसन्न बिहार चुनाव और भूमि अधिग्रहण विधेयक से उत्पन्न भारी नकारात्मकता को देखते हुए, इसे अभी ठंडे बस्ते में डालना बेहतर था। इसलिए यह एक अच्छा विचार हो सकता है कि यह मुख्यमंत्रियों पर ही छोड़ दिया जाए कि वे भूमि कानूनों पर किस तरह से आगे बढ़ना चाहते हैं।
इसलिए प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बेहद विवादास्पद मुद्दों को संसद में पेश करने के पक्ष में जल्दबाजी में नहीं दिखेंगे। अरुण जेटली ने कहा है कि हम इस विधेयक को संसद में पेश करने से पहले संयुक्त प्रवर समिति की रिपोर्ट का इंतजार करेंगे। संयुक्त प्रवर समिति अभी भूमि विधेयक के विभिन्न पहलुओं की जांच कर रही है और उसने सभी हितधारकों से सुझाव मांगा है। संघ परिवार से संबद्ध स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ ने भी समिति को लिखा है कि सहमति और सामाजिक प्रभाव आकलन, दोनों से संबंधित प्रावधानों को बहाल किया जाना चाहिए। अपने ही सहयोगी घटकों की तरफ से ऐसे विरोध को देखते हुए प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने चतुराई से मौजूदा कठिन राजनीतिक स्थिति से खुद को निकालने के लिए सहकारी संघवाद की दुहाई दी। एनडीए सरकार आगामी मानसून सत्र में वस्तु एवं सेवा कर जैसे दूसरे संभव सुधारों पर ध्यान केंद्रित कर सकती है।