यूरोप की अर्थव्यवस्था दूसरे विश्वयुद्व के बाद पूरी तरह लड़खड़ा गई थी और उस समय उद्योग को मूलमंत्र मानकर विकास की रूपरेखा तैयार की गई। इसी समय विकास की दिशा में दो बड़े परिवर्तन हुए। पहला विकास की परिभाषा गढ़ी गई, जिसका मतलब सीधा-सा यह था कि उद्योग और उससे जुड़े तमाम आगे-पीछे के आयामों को ही विकास मान लिया जाए। दूसरा इसी के बाद भोगवादी सभ्यता का तेजी से चलन बढ़ा।
भारत ने भी स्वतंत्रता के बाद इसे ही प्रगति का बड़ा रास्ता माना और तथाकथित विकास की बेतरतीब दौड़ का हिस्सा बन गया। इसके बड़े परिणाम जो भी रहे हों पर गांव बैकफुट पर जरूर आ गए और शहरीकरण ही विकास के मानक बन गए। जहां-जहां अवसर मिले वहां-वहां उद्योगों ने तेजी से पकड़ बनानी शुरू कर दी। अपने देश में आज उद्योग दुनिया में भी काफी आगे हैं जैसे कि कुछ उद्योग घरानों ने तो विश्व में अपने झंडे गाढ़ रखे हैं।
देर-सबेर सरकार को गांवों की चिंता हुई और साथ में उद्योगपतियों ने भी गांवों को दया का पात्र मान लिया। बात साफ थी उद्योगों के लिए कच्चे माल तो गांवों में ही हैं और उनके विधिवत व स्थायी दोहन के लिए गांवों की भागीदारी जरूरी थी। यह चिंता हमारे ही देश की नहीं बल्कि ये सारी दुनिया का विषय था। विकसित देशों में उद्योगपतियों ने इस पहलू पर गौर करते हुए 20वीं सदी में ही अपने समाज व गांव के प्रति दायित्व महसूस करते हुए अपने लाभ के एक अंश को सामाजिक कार्यों में लगाने हेतु कदम उठाए। हमारे देश में भी बड़े उद्योग घराने टाटा-बिड़ला ने इसे अपना नैतिक दायित्व समझते हुए मंदिरों, संस्थानों, शिक्षा व स्वास्थ्य में लाभांश को सेवा में लगाना शुरू कर दिया।
ये सब देखते हुए सरकार ने कुछ बड़े कदम उठाते हुए उद्योगपतियों के लाभांश के एक हिस्से को समाज सेवा में लगाने के लिए प्रेरित किया। वैसे कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्वों जैसे शब्दों का जिक्र 1952 के आस-पास शुरू हुआ। जब उद्योगपतियों ने सेवाभाव के रूप में वंचित लोगों के लिए भी कुछ करने की ठानी। अपने देश में इसकी गंभीरता देखते हुए कॉर्पोरेट संदर्भित मंत्रालय के अंर्तगत ऐसा निर्णय लिया गया ताकि इससे जुड़े मुद्दों पर बीच-बीच में बात कर सके। इसे प्रभावी बनाने के लिए 2000 में एक एक्ट भी लागू कर दिया गया।
आज देश के बड़े उद्योग घरानों ने विधिवत अपने सामाजिक दायित्वों को निभाने के लिए अपने लाभ के एक हिस्से को जन सेवा में लगा रखा है। ज्यादातर लोगों ने अपने ही संगठन बनाकर उसके तहत सामाजिक कार्य से अपने आप को जोड़ा है। इनके कार्यों के अंतर्गत ग्राम विकास, पर्यावरण, स्वास्थ्य, जल संरक्षण आदि जैसे कार्य आते हंै। ये अपने कार्यों की प्राथमिकता स्वयं तय करते हैं। जो समय काल के अनुसार बदलते रहते हैं। इनकी समीक्षा भी स्वयं करते है। ज्यादातर कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्वों में वे ही कार्य होते हैं, जो उद्योगों के हितों से जुड़े होते हैं या फिर उद्योग केंद्रित आस-पास के गांवों की प्राथमिकता होती है।
वर्ष 2000 में जब से यह एक्ट पास हुआ, कभी-कभार इनकी प्रगति पर बैठकें जरूर होतीहैं, पर इनकी राष्ट्रीय समीक्षा कभी नहीं हुई। मसलन क्या दिशा व दशा है और क्या नई संभावनाएं हैं? आज कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व का राष्ट्रीय विकास में क्या योगदान है, यह कहीं परावर्तित नहीं होता। हां, कुछ मैगज़ीन, जो इसी कार्य के लिए समर्पित हैं वे इनके कार्यों की चर्चा अवश्य करती हैं। असल में वर्तमान परिस्थितियों में एक तरफ जहां कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व की राष्ट्रीय समीक्षा की आवश्यकता है, वहां इसे देश की प्राथमिकता के साथ जोड़ने की भी उतनी ही बड़ी कवायद होनी चाहिए। इस समय देश की सबसे बड़ी पहल गांवों के पुनरुद्धार की है।
देश में जहां 8000 शहर और 22000 कस्बे बेहतर जीवन जी रहे हैं, वहीं गांव दिन प्रतिदिन हर रूप में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। स्वतंत्रता से पहले जो कुछ भी गांवों में था, वह भी खो चुका है। न सड़क, न बिजली और न शौचालय। मूलभूत सुविधाओं से वंचित ये गांव आज भी वैसे ही हैं। गांवों ने हर रूप में मार खाई है। इन्हें किसी भी रूप में कोई सुख तो नहीं मिला पर साथ में वे अपने उत्पादों के लाभों से भी वंचित हैं। इन विषमताओं ने गांवों से जहां पलायन बढ़ाया है वहीं, पीछे रह गए लोगों में आक्रोश को जन्म दिया है, जिसे उग्रवादिता भी कहा जा सकता है और जिस तरह हमारी आज की रणनीति है ये सब कुछ बढ़ता ही जाएगा।
सरकार की देश के विकास को अंतरराष्ट्रीय परदे पर लाने के लिए जो कुछ भी प्राथमिकताएं हों पर उसे अपने गांवों के दायित्वों के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए। और इसी कड़ी में उद्योगपतियों के सामाजिक दायित्वों, कार्यक्रमों को नई दिशा देनी चाहिए और यह दायित्व होगा कि टुकड़ों-टुकडों में अलग-अलग मुद्दों पर कार्य न करते हुए ये घराने अपनी हैसियत के अनुसार देश के पिछड़े गांवों को गोद लें। इसका पैमाना सरकार तय करे कि कितने टर्न ओवर वाले घराने हर वर्ष या हर दूसरे तीसरे वर्ष कितने गांवों को गोद ले सकते हैं। इसका सीधा मतलब होगा कि गांवों की हर छोटी-बड़ी आवश्यकता का दायित्व उन घरानों का होगा। अब चाहे छत का सवाल हो या टॉयलेट का या फिर अन्य आवश्यकताओं का, ये सभी इसके अंतर्गत होगा। ये उद्योग घराने गांवों के उत्पादों और संसाधनों के लिए बेहतर बाजार के रास्ते भी तैयार करेंगे।
इस तरह से अगले कुछ दशकों में हजारों गांव बेहतर जीवन जी सकेंगे। जो सरकार के लिए ही एक बड़ी राहत होगी। आने वाले 25 वर्षों में भारत के गांवों की तस्वीर बदलती दिखाई देगी। सरकार के दायित्वों में उद्योग घरानों की यह भागीदारी बड़ी महत्वपूर्ण होगी। इस मुद्दे पर विस्तृत विचार-विमर्श की जरूरत है, जिसकी रणनीति सरकार इन घरानों से मिलकर तय करे।
बड़े उद्योग घराने व गांवों के बीच एक शीत युद्ध-सी स्थिति हमेशा बनी रहती है। ऐसे कदमों से दोनों एक-दूसरे के पूरक भी होंगे और सौहार्दपूर्ण वातावरण भी तैयार होगा। उद्योगपतियों के सामाजिक दायित्वों में गांवों के बढ़ते कदम सबसे बड़े सूचक होंगे। अभी कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व खोखले से दिखाई देते हैं, जिनका इतिहास तो है पर भविष्य का पता नहीं। उद्योगों के ये सामाजिक दायित्वआजकोई बड़ा दम तो नहीं भर सकते, पर साथ में दिशाहीन होने के कारण अपना बड़ा प्रभाव भी नहीं बना पाए हैं।
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