जाति का भूत देखते ही अच्छे-अच्छों की मति मारी जाती है। या तो लोग बिल्ली के सामने आंख मूंदे कबूतर की तरह हो जाते हैं, और यह खुशफहमी पालने लगते हैं कि जाति है ही नहीं। या फिर उनकी गति सावन के अंधे की तरह हो जाती है, और उन्हें हर बात में जाति ही जाति नजर आने लगती है।
सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक-जाति जनगणना के जाति संबंधी आंकड़े सार्वजनिक न करने से उपजी बहस हिंदुस्तानी दिमाग की इसी बीमारी का एक नमूना है। पहली नजर में सरकार की सफाई ठीक लगती है। जनगणना के आंकड़े बीनने-छानने में अक्सर वक्त लग जाता है। इसलिए जनगणना के सारे आंकड़े एक साथ जारी नहीं होते। बेहतर होता कि सरकार कोई दिन-तारीख बताती, जब इसकी गिनती को कागज पर अंतिम रूप दे दिया जाता। पर ऐसा न कहके जो दलील दी गई है, उससे सरकार की मंशा पर सवाल उठते हैं।
जब अरुण जेटली कहते हैं कि इस सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य गरीबी की जानकारी इकठ्ठा करना है, तो साफ है कि सरकार भरमाने की कोशिश कर रही है। हकीकत यह है कि कांग्रेस या भाजपा, किसी की भी सरकार की मंशा जातिवार जनगणना के पक्ष में नहीं थी। वह तो अचानक संसद में बहस हो गई, और सरकार को जातिवार जनगणना की बात सैद्धांतिक रूप में स्वीकार करनी पड़ी। लेकिन फिर इसे उलझाने के षड्यंत्र रचे गए। जाति की गणना के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण भी नत्थी कर दिया गया। अब कहा जा रहा है कि असली बात तो सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण की ही थी, जाति की गणना की नहीं।
दरअसल, जाति के आंकड़ों से कांग्रेस-भाजपा और पूरा राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान डरता है। उन्हें डर है कि इससे पिछड़ी जातियों की संख्या सार्वजनिक हो जाएगी, और पता चल जाएगा कि किस जाति समुदाय की संख्या इस देश में सबसे ज्यादा है। उन्हें डर यह है कि इससे जाति और नौकरी के संबंध पर से पर्दा उठ जाएगा। राजनीति, अफसरशाही और अर्थव्यवस्था पर अगड़ी जाति के वर्चस्व का राज खुल जाएगा। मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद से मोटा-मोटी जानते तो सब हैं कि इस देश में अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल लोगों की संख्या 45 से 50 फीसदी और सवर्ण जाति के लोगों की संख्या 16-20 प्रतिशत के आस-पास है। मगर जाति की आधिकारिक गणना के सार्वजनिक होने से शिक्षा और नौकरियों में संख्या के हिसाब से भागीदारी का सवाल पुरजोर तरीके से उठेगा।
जाति के आंकड़ों से मंडल और सामाजिक न्याय के पक्षधरों में भी बेचैनी हो सकती है। उन्हें डर है कि यह सर्वेक्षण कहीं यह न दिखा दे कि जाति सामाजिक अन्याय का एक महत्वपूर्ण कारक तो है, लेकिन एकमात्र कारक नहीं। ओबीसी की श्रेणी में आने वाली जातियों के बीच शिक्षा और नौकरियों में अवसर के लिहाज से चंद जातियों के वर्चस्व की बात जाति जनगणना के आंकड़ों से आधिकारिक रूप से उजागर हो सकती है।
बहरहाल हमें समझना होगा कि जातिवार आंकड़े को सार्वजनिक करना जातिवाद नहीं है, बल्कि यह जाति के भूत को वश में करने का तरीका है। यह आरक्षण पर रुक गई एक बहस को सार्थक दिशा में लेजाने का एक जरूरी अवसर भी है, बशर्ते हम जाति के भूत से आंखें खोलकर सामना करने को तैयार हों।
-लेखक स्वराज अभियान के संस्थापक और राजनीति विज्ञानी हैं