मप्र व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं की भर्ती परीक्षाओं में हुए घोटाले और इसकी जांच के घेरे में आए कई लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत ने शिवराज सिंह सरकार की नींद पहले ही उड़ा रखी थी, लेकिन हाल में जब इस मामले की तहकीकात कर रहे एक पत्रकार और जांच से जुड़े एक मेडिकल शिक्षक की रहस्यमय हालत में मौत हुई तो उसकी प्रतिक्रिया देशभर में हुई। नतीजा यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच सीबीआई से कराने के आदेश दिए। यदि व्यापमं का मसला मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए उनके राजनीतिक जीवन की सबसे
बड़ी चुनौती बन गया है तो इसकी सबसे बड़ी वजह 20 से 40 गवाहों व आरोपियों की रहस्यमय मौत है। ये घोटाला इतना बड़ा दिख रहा है कि सीबीआई के लिए भी जल्द इसकी तह तक जाना आसान नहीं होगा।
मप्र में सिपाहियों, संविदा शिक्षकों की भर्ती परीक्षा के साथ ही मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा का आयोजन भी व्यापमं द्वारा किया जाता है। पिछले कई वर्षों से व्यापमं परीक्षाओं में धांधली की जा रही थी। यह धांधली इस हद तक की जा रही थी कि किसी परीक्षार्थी की जगह कोई और परीक्षा देता था अथवा पैसे लेकर सीधे ही किसी को उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता था। एक अनुमान के मुताबिक इस धोखाधड़ी के जरिए सैकड़ों लोगों ने अनुचित तरीके से या तो मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश प्राप्त किया या फिर तृतीय श्रेणी की सरकारी नौकरियां हासिल कीं। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की मानें तो लाखों लोग इस धांधली के जरिए लाभान्वित हुए। उनके आंकड़े पर भरोसा करना कठिन है, लेकिन इतना तो है ही कि व्यापमं के गड़बड़झाले ने मध्य प्रदेश के साथ-साथ अन्य राज्यों में ऐसी ही संस्थाओं की भर्ती और प्रवेश परीक्षा प्रक्रिया को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
यह पहला मौका नहीं है जब राज्यों में व्यापमं सरीखी संस्थाओं के कामकाज में बड़े पैमाने पर धांधली सामने आई हो। इस तरह के मामले अन्य राज्यों में भी सामने आए हैं और कई जगह वे जांच के बाद अदालतों तक भी पहुंचे हैं। इस तरह की धांधली बताती है कि भर्ती प्रक्रिया में भ्रष्टाचार आम है और उसके चलते लाखों-करोड़ों रुपए के वारे-न्यारे किए जा रहे हैं।
व्यापमं में धांधली से भर्तियों के लिए लाखों की घूस लिए जाने की बात आ रही है। अब सीबीआई ही यह पता लगा सकती है कि धांधली के इस खेल में कुल कितने धन का लेन-देन हुआ और इसमें कौन-कौन से राजनेता, नौकरशाह, शिक्षक व छात्र शामिल हैं। कांग्रेस ने इसे 2जी से भी बड़ा घोटाला करार दिया है। पता नहीं ऐसा है या नहीं, लेकिन यह चिंता केवल भाजपा को ही नहीं, बल्कि सभी दलों को करनी चाहिए कि भर्ती और परीक्षा प्रक्रिया कैसे साफ-सुथरी बने?
व्यापमं को लेकर सवालों में घिरे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का कहना है कि जैसे ही उन्हें घोटाले का पता चला, उन्होंने जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन कर दिया, जो मप्र हाई कोर्ट की निगरानी में काम भी करने लगा। लेकिन इस दलील से शायद ही कोई संतुष्ट हो। संतुष्ट ना होने काएक कारण तो यह है कि जांच ठोस तरीके से आगे नहीं बढ़ी और दूसरे यह कि जांच के दौरान एक के बाद एक आरोपियों और गवाहों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के मामले सामने आने लगे। देश-दुनिया में शायद ही कहीं किसी घोटाले में इतने आरोपियों अथवा गवाहों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई हो।
पता नहीं इन मौतों के पीछे कौन है, लेकिन जो भी है उसे पुलिस-कानून की कहीं कोई परवाह नहीं और वह किसी भी कीमत पर घोटाले में शामिल नेताओं और नौकरशाहों के नाम सार्वजनिक नहीं होने देना चाहता। इन मौतों पर मप्र पुलिस अथवा उसका विशेष जांच दल ना तो किसी को गिरफ्त में ले सका, ना मौतों के सिलसिले को रोक सका और ना ही संदेहों को दूर सका। शर्मनाक है कि आज किसी के पास इसका जवाब नहीं कि आखिर कोई इतना दुस्साहसी कैसे हो सकता है कि एक के बाद एक गवाहों-आरोपियों को ठिकाने लगाता जाए और फिर भी जांच सही दिशा में बताई जाए?
निस्संदेह यह तो नहीं कहा जा सकता कि सभी मौतें किसी साजिश का ही परिणाम हैं, लेकिन कुछ मौतें तो संदिग्ध नजर आ ही रही हैं। किसी घोटाले में दो-तीन दर्जन से अधिक आरोपियों अथवा गवाहों की मौत तमाम संदेह पैदा करती है। इस संदेह का निवारण मध्य प्रदेश सरकार और खुद भाजपा के हित में है। व्यापमं घोटाला मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और मप्र सरकार ही नहीं, बल्कि केंद्र की मोदी सरकार के लिए भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं। कांग्रेस तो इस घोटाले को लेकर मोदी सरकार पर हमलावर है ही, अन्य विपक्षी दल भी भाजपा से जवाब मांग रहे हैं। यह तय है कि कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल संसद के आगामी सत्र में दूसरे मुद्दों के साथ-साथ व्यापमं घोटाले को लेकर भी केंद्र सरकार को घेरेंगे। इसका असर संसद के कामकाज पर पड़ेगा।
मोदी सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह व्यापमं घोटाले को लेकर विपक्षी दलों के साथ-साथ आम जनता को भी संतुष्ट करे। यह ठीक नहीं हुआ कि मप्र सरकार इस घोटाले की जांच सीबीआई के हवाले करने की मांग तत्काल स्वीकार करने के बजाय हीलाहवाली करती रही। यह समझना कठिन है कि राज्य सरकारों को किसी संदिग्ध मामले की जांच केंद्रीय एजेंसियों से कराने में हिचक क्यों होती है? क्या वे इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेती हैं या फिर सच्चाई सामने आने से डरती हैं? यह प्रवृत्ति ठीक नहीं, क्योंकि इससे कुल मिलाकर उनका ही नुकसान होता है।
राज्य सरकारों को सीबीआई से कुछ शिकायतें हो सकती हैं, लेकिन एक केंद्रीय एजेंसी के रूप में हमेशा उसकी क्षमता पर संदेह जताना और उसकी जांच से बचना ठीक नहीं है। होना तो यह चाहिए कि जब भी कोई बड़ा मामला सामने आए और केंद्र सरकार को प्रतीत हो कि संबंधित राज्य की एजेंसियों से उसकी सही तरह जांच संभव नहीं तो वह अपने स्तर पर पहल कर मामले की सीबीआई जांच का आदेश दे। इसके लिए यदि जरूरी हो तो केंद्र सरकार को कुछ कानूनी अधिकार भी मिलने चाहिए। यह ठीक नहीं कि किसी मामले की सीबीआई जांच के लिए केंद्र सरकार तब तकइंतजारकरती रहे, जब तक कि संबंधित राज्य इसके लिए आग्रह ना करे या फिर अदालतें हस्तक्षेप ना करें। सीबीआई जांच में जरूरत से ज्यादा देरी अकसर घपले-घोटालों में लीपापोती का अवसर प्रदान करती है और जब मामला सीबीआई के पास आता है तो उसके लिए सुबूत जुटाना और असली गुनहगारों तक पहुंचना बेहद मुश्किल हो जाता है।
व्यापमं घोटाले में भी ऐसा ही होता नजर आ रहा है। इस घोटाले की जांच सीबीआई को तब मिली जब मप्र सरकार के पास कोई चारा नहीं रह गया और सुप्रीम कोर्ट ने भी सीबीआई जांच की जरूरत जताई। अच्छा यह होता कि इस मामले को शुरुआत में ही सीबीआई को सौंप दिया जाता। यदि ऐसा किया गया होता तो आज विपक्षी दल मप्र और साथ ही केंद्र सरकार पर इस कदर हावी नहीं होते। व्यापमं घोटाले की जांच सीबीआई को सौंपने में देरी के राजनीतिक दुष्परिणाम भी उभरते दिख रहे हैं। शिवराज सिंह गंभीर सवालों से घिरे हैं तो केंद्र सरकार पर भी दबाव दिख रहा है। इस घोटाले को लेकर उमा भारती के असहमति भरे बयान और नरेंद्र मोदी के मौन ने ना केवल शिवराज की परेशानी बढ़ाई है, बल्कि यह भी संकेत दिया है कि भाजपा के अंदर सब कुछ ठीक नहीं।
(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)