शहरों में बढ़ेगा बढ़ती आबादी का बोझ- ज्ञानेन्द्र रावत

दुनिया की आबादी सात अरब को पार कर चुकी है। इसमें हर साल आठ से नौ करोड़ की वृद्धि चिंतनीय है। संयुक्त राष्ट्र की मानें, तो भविष्य में भारत को मिलाकर कुछ बड़े अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देश वैश्विक आबादी तेजी से बढ़ाएंगे। भारत सबसे बड़ी आबादी वाला दुनिया का दूसरा देश है। आने वाले 10-12 वर्षों में भारत चीन से आगे निकल जाएगा। आशंका है, 2060 में भारत की आबादी 1.7 अरब पहुंच जाएगी। अगले चार दशक के दौरान भारत और चीन की शहरी आबादी में सबसे बड़ी बढ़ोतरी दर्ज की जाएगी। वर्ष 2050 तक भारत में 49.7 करोड़ और अधिक शहरी आबादी जुड़ जाएगी। वहीं चीन में 34.1 करोड़ और लोग शहरों में रहने लगेंगे। अफ्रीका और एशिया इसी समयावधि के दौरान वैश्विक शहरीकरण के मामले में जनसंख्या वृद्धि में सबसे आगे होंगे। इनमें भारत के साथ चीन, अमेरिका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में भारी बढ़ोतरी दर्ज की जाएगी।

शहरी जनसंख्या में ऐसी अभूतपूर्व बढ़ोतरी से शहरों में नौकरी, घर और बिजली प्रदान करने की नई चुनौतियां पैदा होंगी। यही नहीं शहरी गरीबी को कम करने के लिए बुनियादी ढांचे का विकास, मलिन बस्तियों का विस्तार, शहरी पर्यावरण में गिरावट आदि बहुतेरी चुनौतियों का सामना भी सरकारों को करना पड़ेगा।

गौरतलब है वर्ष 2001 की तुलना में 2011 में भारत की आबादी में 18 करोड़ की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसमें ग्रामीण के मुकाबले शहरी आबादी में बढ़ोतरी अधिक हुई। इसका कारण यह रहा कि वर्ष 2001 में 2,500 के करीब मलिन बस्तियों को, जो ग्रामीण क्षेत्र में आती थीं, 2011 में शहरी क्षेत्र में शामिल कर लिया गया। 27 भारतीय राज्यों में मौजूदा दशक में ग्रामीण आबादी में तेजी से गिरावट आने की आशंका व्यक्त की गई है। इसे जनसांख्यिकीय बदलाव कहें, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। दरअसल वर्ष 2001 से ही गोवा, केरल, नगालैंड और सिक्किम में ग्रामीण आबादी में गिरावट आने के संकेत मिलने शुरू हो गए थे, लेकिन आंध्र प्रदेश में ग्रामीण आबादी स्थिर रही।

जहां तक चुनौतियों का सवाल है, इनमें जनसंख्या नियोजन की नीतियों का कारगर न होना, अनियोजित गर्भधारण और अवांछित प्रजनन प्रमुख हैं। इससे सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध होती है। परिणामतः शारीरिक विकास कमजोर होता है। दैनंदिन कार्यों के प्रति लापरवाही से कार्यक्षमता व कार्य उत्पादकता पर असर पड़ता है, जिससे आमदनी की क्षमता भी प्रभावित होती है। इसके लक्षण गरीबी, कुपोषण, भुखमरी और बेरोजगारी के साथ-साथ भोजन, पानी व जगह की कमी के रूप में दिखाई देते हैं। देश में स्कूली शिक्षा की हालत बेहद दयनीय है। उच्च शिक्षा का स्तर भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। फिर आज देश के अधिकांश विश्वविद्यालय संसाधनों की जबर्दस्त कमी से जूझ रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि हमारी सार्वजनिक नीतियां पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। जरूरत है, अब देश की ग्रामीण जनता को कृषि से उद्योगों की ओर प्रेरित करने की। देश की काफी समस्याएं औद्योगिकीकरण के रास्ते हल हो सकती हैं। समय की मांग है कि अब अपनी प्राथमिकताओं का फिर से निर्धारण करें। परिवार नियोजन कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए और शिक्षा की गुणवत्तापर ध्यान दिया जाए। इसमें सफलता तभी संभव है, जब उन सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में, जहां गरीब व ग्रामीण छात्र पढ़ते हैं, निवेश बढ़ाया जाएगा। अब यदि इस बाबत कदम उठाए जाते हैं, तो देश की दशा-दिशा बदल सकती है, अन्यथा कोई बदलाव नहीं होगा।

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