योगेंद्र ने कहा कि उनको वहां ‘इंकलाब जिंदाबाद" का नारा सुनने को मिला। वैसे तो बाज दफे सुनने को मिल जाता है यह नारा, लेकिन उसको उन्होंने पुणे में जैसा सुना, उसमें एक फर्क था। नारे बोलने वाले कह रहे थे : ‘इंकलाब इंकलाब इंकलाबो-इंकलाब!" उस ‘ओ" ने, सिर्फ उस एक जुज-ए-लफ्ज ने, उस नारे में समझिये कि जान डाल दी थी। उसमें जोश भर दिया, एक नया मायना भर दिया। गालिबन, यह नारा किसी जमाने में इस ही तरह बोला और उचारा जाता होगा, एक गूंज के साथ, गर्मजोशी के साथ।
इस नारे को सुनकर मुझमें क्या हुआ, यह सवाल योगेंद्र ने खुद से किया। फिर खुद से ही उन्हें जवाब भी मिला : ‘उसको सुनकर मुझमें बीते जमाने के लिए एक तड़प-सी उठी।" बीते जमाने के लिए? इसमें कोई अंतर्विरोध जरूर है, क्योंकि नारा यह आगे कुछ देखना-करना चाहता है। वह आने वाले कल के लिए है, बीते हुए कल के बारे में नहीं। लेकिन हकीकत तो यही है कि इस नारे ने उनमें पुरानी यादें जगा दीं।
वहां मौजूद बड़ों और बुजुर्गों में मुझको भी ऐसा ही लगा। उस नारे में शहीद भगत सिंह जिंदा हैं, बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद भी। ‘इंकलाब जिंदाबाद" का सबसे मशहूर इस्तेमाल भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 1929 में किया था, जब उन्होंने तब की सेंट्रल असेंबली में एक धमाका सुनाया, बकौल भगत सिंह, ‘बहरों के कान खोल देने को।" उस बहादुर नौजवान को वहीं गिरफ्तार कर लिया गया और 1931 में उसे फांसी दे दी गई। लेकिन आज की पीढ़ी के लिए ये नाम महज नाम हैं और उनका नारा तवारीख के खंडहर का एक हिस्सा।
इसमें एक अहम बात छिपी है। नारों में ताजगी और ताकत तब होती है, जब उनको कहने वालों की लड़त में, उनके सबब में हक हो, ईमान हो। इस ही नारे को ट्रेड यूनियनों ने, राजनीतिक दलों ने, रोजमर्रा के मसलों-मुद्दों पर, एक-दूसरे के खिलाफ प्रचार में जोड़कर उसको मामूली-सा बना दिया है। उसके सोने की जगह सीसा भर दिया है।
यही हुआ है कुछ और नारों के साथ भी।
आजादी के पहले ‘इंकलाब जिंदाबाद", ‘भारत छोड़ो" और ‘जय हिंद" जैसे नारे देश में उठे थे। लेकिन आजादी के बाद? नारों पर नारे लिखे-बोले गए हैं, लेकिन उनमें से किसी में भी हक और ईमान का सोना नहीं, बस सीसा ही सीसा है। ऐसा क्यों? क्या काबिल, चतुर लिखने वाले नहीं हैं हमारे बीच? हैं क्यूं नहीं, बहुत हैं। लेकिन चतुराई एक बात होतीहै, इंकलाब कुछ और। आजादी के बाद के नारों में सियासी चाल दिखाई देती है। ‘गरीबी हटाओ!" इंदिरा कांग्रेस ने फखत चुनाव के मद्देनजर यह नारा कहा था, तो इसके बराबर विपक्ष से नारा आया, ‘इंदिरा हटाओ!" इसकी परिणति इस अहमकाना-से नारे के साथ हुई, ‘इंडिया इज इंदिरा!"
उस ही की तरह भाजपा ने नारा दिया था : ‘अबकी बारी अटल बिहारी।" कांग्रेस ने ‘हाथ" के साथ और भाजपा ने ‘कमल" के साथ को लेकर नारे जोड़ने की कोशिशें की हैं। ये तमाम नारे चुनावों से, सियासत से, हार-जीत, खींचातानी से जुड़े हुए हैं। सबमें राजनीतिक स्वार्थ और दंभ रहा है। और ये सब नारे आसमान में कटी पतंग की तरह कुछ देर लहराकर धरती पर आ गिरे हैं। मार्क्सवादी दल निरंतर ‘इंकलाब जिंदाबाद" के नारे का इस्तेमाल करते रहे हैं। उन दलों के जैसे हालात रहे, उसके मद्देनजर यह तिलिस्मी नारा भी उनके दायरे में बेअसर हो गया है।
मुझमें पुराने नारों के लिए अफसोस है, लेकिन उससे भी ज्यादा उन नारों के पीछे जो जान थी, जो जोश था, जो कुर्बानी थी, जो ईमान था, उस सबके आज नहीं होने पर अफसोस है। शायरी दिमाग से नहीं, दिल से लिखी जाती है। नारे अक्लमंदी से नहीं दर्दमंदी से बनते हैं। आज शर्तिया तीव्र वामपंथी, नक्सलवादी भी नारे बनाते और बोलते होंगे, जिनको हम शहर वाले जानते भी नहीं। जरूर उनके नारों में रोष होगा, गुस्सा होगा। लेकिन हिंदुस्तान के शहरी इलाकों में पैसों से रंगी हुई सियासत में आज ना आदर्श हैं, ना उसूल हैं, ना ही वह दिल्लगी, जो कि सच्चे नारों को पेश कर सके।
क्या इस बदलाव में सोचने की कोई बात है? मेरी समझ में जरूर है। जैसे आजादी के बाद हमारे दिमाग तंग हो गए हैं, जुबानें भी तंग, वैसे ही हमारी सोच भी सिकुड़ने लगी है। हम अपना-अपना सोचते हैं। मैं हिंदू, वो मुसलमान, मैं ब्राह्मण, वो अछूत, मैं सुन्नी, वो शिया। ऐसे में नारे, सलाम-नमस्कार तंग नहीं तो और क्या होंगे? इंकलाब जो है, वह इंसान के लिए जरूरी होता है, ना कि किसी एक किस्म के इंसान के लिए। ‘जय हिंद" चाहता है हिंद की जय, ना कि हिंद के किसी हिस्से-टुकड़े की जय। इसीलिए योगेंद्र यादव को ‘इंकलाबो-इंकलाब" सुनकर उस दौर की याद आ गई थी, जब नारे नारेबाजी नहीं होते थे, इंसाफ के लिए बोल पड़ते थे।
(लेखक पूर्व राज्यपाल, उच्चायुक्त हैं और संप्रति अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास व राजनीति शास्त्र
के विशिष्ट प्राध्यापक हैं)