न्यायालय की यह पहल मांओं के आत्मसम्मान को बनाए रखने की दिशा में एक सार्थक कदम है। इस देश में हजारों ऐसी महिलाएं हैं, जिन्हें देश की वैधानिक जटिलताओं के चलते आत्मसम्मान से समझौता करना पड़ता है। हमारे समाज में आज भी ‘एकल मांओं’ के लिए स्थितियां कुछ विशेष नहीं बदली हैं। यह जरूर है कि कुछ राज्यों ने स्कूलों में एडमिशन के समय मां के नाम को ‘प्रथम’ स्थान दिया है, पर वह कानूनन ‘प्रथम अभिभावक’ मानी जाती हो, ऐसा नहीं है। पिछले कुछ समय से ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है, जो विवाह के बंधन को न स्वीकारते हुए भी ‘मां’ बनना चाहती हैं और इसके लिए वे कानूनन बच्चे गोद ले रही हैं। दूसरी ओर, संबंध विच्छेद की अवस्था में अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही मां के लिए भी एक ऐसे आदमी के नाम का बार-बार जिक्र आना पीड़ादायक है, जिसके साथ वह अब नहीं रह रही।
एकल अभिभावक के तौर पर पूर्ण स्वाभिमान के साथ अपनी संतानों की परवरिश करती जननी जिन सवालों से गुजरती है, उन पर गहन विमर्श की आवश्यकता थी। जाहिर है, महिला सशक्तिकरण के सारे दावे तब तक निराधार हैं, जब तक एक मां को उसके नैसर्गिक अधिकारों से वंचित किया जाएगा। अपने बच्चे की देखभाल में अपना सर्वस्व अर्पित करने वाली मां बच्चे के स्कूल या कॉलेज के एडमिशन फॉर्म पर दस्तखत नहीं कर सकती। इन्हीं सवालों को लेकर ‘हिंदू माइनॉरिटी ऐंड गार्जियनशिप ऐक्ट (1956)’ की सांविधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते हुए याचिका दाखिल की गई। ऐसा कोई सामाजिक, आर्थिक या वैज्ञानिक आधार नहीं है, जिसके कारण यह कहा जा सके कि महिला अपने बच्चे की अभिभावक बनने की अधिकारी नहीं।
लंबे समय से, समाज के संवेदनशील वर्ग द्वारा महसूस किया जा रहा था कि ‘जननी’ को कानूनी और सामाजिक तौर पर वह दर्जा हासिल नहीं हुआ, जो उसे मिलना चाहिए। इसी को ध्यान में रखते हुए मां को ‘प्रथम अभिभावक’ बनाने का प्रस्ताव योजना आयोग ने 2012 में रखा था। लेकिन उस पर अमल नहीं हुआ।
इस संदर्भ में समाज की मुख्यधारा से अलग हुई उन महिलाओं की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए, जो परिस्थितिवश देह व्यापार में संलग्न हैं। उनके बच्चों के उज्ज्वल भविष्य पर प्रश्नचिह्न तब लग जाता है, जब स्कूल में दाखिले के समय प्रथम अभिभावक के तौर पर पिता का नाम पूछा जाता है और शार्मिंदगी की स्थिति से बचने के लिए वे अपने बच्चों को उनकेमूल अधिकारों से दूर करने को विवश हो जाती हैं। स्त्री सशक्तिकरण की अवधारणा सच्चे मायने में तभी वास्तविक स्वरूप ग्रहण कर सकेगी, जब स्त्री के मातृत्व के संपूर्ण अधिकारों का संरक्षण होगा।