व्यापमं ने साख पर उठाए सवाल – आरती जेरथ

आखिरकार सर्वोच्च अदालत को व्यापमं घोटाले में वह हस्तक्षेप करना ही पड़ा, जो कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बहुत पहले ही कर देना था। सर्वोच्च अदालत ने अब न केवल व्यापमं घोटाले के तहत हुई फर्जी नियुक्तियों/दाखिलों, बल्कि इस घोटाले से जुड़े विभिन्न लोगों की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में हुई मौतों की भी सीबीआई जांच के आदेश दे दिए हैं। यह एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या सीबीआई इस घोटाले की तह तक जाने में कामयाब रहेगी, जिसे कि देश का अब तक का सबसे बड़ा घपला बताया जा रहा है? सवाल इसलिए खड़े होते हैं, क्योंकि घोटाले से जुड़े 45 से भी अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें से कुछ व्यापमं से लाभ उठाने वालों में से थे, कुछ मध्यस्थ की भूमिका में थे और कुछ इसके महत्वपूर्ण गवाह थे, जो कि मामले की जांच करने वालों को हकीकत से रूबरू कराने में सक्षम साबित हो सकते थे।

जब धड़ाधड़ मौतें हो रही थीं, तब भी मध्य प्रदेश की पुलिस या मामले की जांच कर रही एसटीएफ या मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिगण चिंतित नजर नहीं आ रहे थे। मौतों को प्राकृतिक मृत्यु या दुर्घटना या आत्महत्या बताया जाता रहा था। सर्वोच्च अदालत द्वारा मामले की जांच सीबीआई से कराने के आदेश देने तक व्यापमं की जांच से जुड़ी एसआईटी के प्रमुख जस्टिस चंद्रेश भूषण यही कहते रहे कि हो रही मौतें ‘अजीब" जरूर हैं, लेकिन ‘रहस्यमयी" नहीं हैं और किसी तरह की गड़बड़ी के कोई सबूत नहीं मिले हैं। प्रदेश के गृह मंत्री बाबूलाल गौर ने तो हद कर दी। उन्होंने कहा कि ‘मृत्युलोक" में लोगों के मरने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं और जो आया है, सो जाएगा भी। लेकिन अब प्रदेश के हुक्मरान व अफसरान इन मौतों को अप्रासंगिक बताकर निरस्त नहीं कर सकते।

निश्चित ही, भारतीय राजनीति को हिला देने वाला व्यापमं कोई पहला घोटाला नहीं है और न ही शायद यह आखिरी घोटाला होगा। लेकिन जितनी तादाद में इस घोटाले से जुड़े लोगों की मौत हो चुकी है, उसके चलते यह सबसे अलग जरूर साबित होता है। भर्तियों संबंधी घोटाले दूसरे राज्यों में भी हुए हैं, खासतौर पर पंजाब और हरियाणा में। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला आज अगर जेल में हैं तो उसका कारण उनके राज्य में स्कूली शिक्षकों की नियुक्ति करने वाले एक बड़े रैकेट में उनकी संलिप्तता ही है। लेकिन व्यापमं के सामने इस तरह के घोटाले कहीं नहीं ठहरते। जिस पैमाने पर यह घोटाला हुआ है, जितनी परतें इसमें हैं और जिस तरह सुनियोजित रूप से इससे जुड़े लोगों को एक-एक कर ठिकाने लगाया जा रहा है, वह रीढ़ में सिहरन पैदा कर देने वाला है। संभवत: यह भ्रष्टाचार का सबसे सुनियोजित मामला है, जिसमें राजनेता, नौकरशाह और बिचौलिये सभी शामिल हैं, लगभग किसी माफिया की तरह।

इस घोटाले से कई चीजें उभरकर सामने आती हैं। अव्वल तो यही कि इसने भाजपा की एक साफ छवि वाली पार्टी होने की साख पर बट्टा लगा दिया है। शक है कि इस घोटाले में वरिष्ठ भाजपानेता शामिल रहे हैं और प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की तो इस मामले में गिरफ्तारी भी हो चुकी है। आरोपों की आंच मुख्यमंत्री आवास तक भी पहुंची है। उनके निजी सचिव तक संदेह के दायरे में आए हैं। मध्य प्रदेश के न्यस्त खनन हितों से उनके करीबी रिश्ते बताए जाते हैं। यह न केवल चौहान बल्कि भाजपा को भी बड़ा झटका है, क्योंकि चौहान को पार्टी के आदर्श मुख्यमंत्रियों में से एक माना जाता रहा है। उन्हें तो नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी बताया गया था। उन्हें साफ छवि व सरल स्वभाव वाले एक ऐसे नेता के रूप में प्रचारित किया जा रहा था, जिन्होंने अपनी अथक मेहनत से मध्य प्रदेश को एक बीमारू राज्य के बजाय देश के सबसे तेजी से विकास करने वाले राज्यों में से एक बना दिया।

चौहान संघ के भी प्रिय हैं। गौर किया जाना चाहिए कि पूरे मध्य प्रदेश को अपनी गिरफ्त में लेने वाले इस घपले पर संघ ने अब तक चुप्पी साधे रखी है। इस मायने में व्यापमं ने संघ के इस दावे की भी हवा निकाल दी है कि यह संगठन सुप्रशासन में दक्ष अनुशासित नेताओं की पौध को देश के सामने लाने में सक्षम है।

व्यापमं कई मायनों में 2जी या बोफोर्स घोटाले से भी बदतर है। भले ही इससे 2जी जैसा 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों के घोटाले जैसा कोई बड़ा आंकड़ा न जुड़ा हो, लेकिन मेडिकल व अन्य प्रवेश परीक्षाओं के जरिए भर्ती की सरकारी प्रक्रिया में जिस पैमाने पर धांधली हुई है, वह एक समूचे गुणवत्ता-आधारित तंत्र को संदिग्ध बना देता है। इससे सभी को समान अवसर के बुनियादी सिद्धांत पर ही चोट पहुंचती है। मन लगाकर पढ़ाई करने वाले और नौकरी की तलाश करने वाले हजारों युवाओं के लिए इससे बड़ा सदमा कोई दूसरा नहीं हो सकता कि जिस जॉब पर उनका हक था, उसे एक व्यापक घोटाले के चलते किसी अयोग्य को दे दिया गया है। कि साल-दर-साल, कक्षा-दर-कक्षा मेहनत करके अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण होने का कोई मतलब नहीं है, नौकरी उसी को मिलेगी, जो उसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार है। वास्तव में व्यापमं सीधे-सीधे युवा भारत पर चोट है।

राजीव गांधी को एक ऐसी तोप के सौदे के मामले में अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी, जो कि अंतत: कारगिल की लड़ाई में मददगार ही साबित हुई। 2जी घोटाले से सरकारी खजाने को बड़ी चपत लगाने वाली यूपीए सरकार को मतदाताओं ने सिरे से खारिज कर दिया था। लेकिन इस बात को बड़ी आसानी से भुला दिया गया कि आज भी मोबाइल दरें इसलिए अफोर्डेबल बनी हुई हैं, क्योंकि यूपीए सरकार ने वर्ष 2001 में तय कर दी गई बुनियादी लाइसेंसिंग दरों को नहीं बदला था। लेकिन व्यापमं की चोट तो सीधे आमजन पर है। जिन युवाओं के हितों की रक्षक होने का दावा करने से भाजपा नहीं कतराती, प्रधानमंत्री जिस ‘डेमोग्राफिक डेविडेंड" का हवाला देते नहीं थकते, यह सीधे-सीधे उन्हीं युवाओं के भविष्य पर डाका है। इतने बड़े पैमाने पर चल रहे इस घपले के उजागर होनेकेबाद क्या अब युवाओं के मन में इस बात की कोई प्रेरणा रह जाएगी कि वे मन लगाकर पढ़ाई करें और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हों? अब यदि युवा यह सोचने लगें कि पैसों और रसूख के दम पर ही कामयाबी हासिल की जा सकती है तो उन्हें दोष नहीं दिया जाना चाहिए।

यह सोचकर ही रूह कांप जाती है कि व्यापमं के चलते उत्तीर्ण हुए डॉक्टर अपने मरीजों का कैसा इलाज करते होंगे, या फिर इस धांधली के चलते नौकरी पाने वाले बाबू दफ्तरों में बैठकर किस तरह का काम करते होंगे। वैश्विक महाशक्ति बनने की बात तो दूर, व्यापमं जैसे घोटाले भारत को फिर से अंधकार और नाउम्मीदी के उस स्याह दौर में ले जाएंगे, जहां से हम इतने संघर्षों के बाद उभरकर सामने आए हैं।

पहले ललितगेट और फिर व्यापमं के खुलासे ने नरेंद्र मोदी की साफ छवि पर भी धब्बा लगा दिया है। पूछा जाने लगा है कि क्या वाकई मोदी देश में बदलाव लाने में सक्षम हैं, जैसा कि उन्होंने दावा किया था? इन दोनों मामलों में चुप्पी साधकर और कड़ी कार्रवाई नहीं करते हुए मोदी ने केवल अपनी सरकार को यूपीए3 साबित करने का ही काम किया है। अब जब व्यापमं की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए गए हैं, यह मोदी की निजी जिम्मेदारी हैं कि वे निष्पक्ष, त्वरित और पारदर्शितापूर्ण जांच सुनिश्चित कराएं ताकि भ्रष्टाचार के इस सबसे बड़े रैकेट का कच्चा चिठ्ठा देश के सामने आए और दोषियों को सख्त से सख्त सजा मिल सके।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 

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