फैक्टरियों में काम करने वाली लड़कियां आज भी बेहद गरीबी में जीती हैं, उन्हें ज्यादा काम करना पड़ता है, जबकि वेतन तुलनात्मक रूप से कम दिया जाता है। वे आज भी यौन हिंसा का शिकार बनती हैं। और बीच-बीच में तो हम सब देखते ही हैं कि किस तरह गारमेंट्स फैक्टरियों में आग लगती है और उसमें जलकर राख हो जाते हैं कपड़े। कई बार तो इन हादसों में महिला कर्मचारियों की मौत भी हो जाती है।
वर्ष 1976 में बांग्लादेश में गारमेंट्स फैक्टरी की शुरुआत हुई। बीती सदी के नवें दशक में वहां इसकी लहर-सी आई और कारोबार भी अचानक बहुत बढ़ गया। आज बांग्लादेश के निर्यात का अस्सी फीसदी हिस्सा वस्त्र ही होते हैं। वहां गारमेंट्स फैक्टरियों में काम करने वाले कुल तीस लाख कामगारों में करीब 85 फीसदी लड़कियां हैं। चूंकि इन लाखों लड़कियों की मेहनत के बल पर ही बांग्लादेश वस्रोद्योग में दुनिया के नक्शे पर आ पाया है, ऐसे में, लाजिमी तो यही था कि इन महिला कामगारों का सम्मान किया जाता, और उन्हें उनका हक दिया जाता।
मगर ऐसा कुछ नहीं है। उलटे गरीबी हर साल और लड़कियों को रोजगार के लिए गारमेंट क्षेत्र में ले आती है। फैक्टरियों को भी कामगार के तौर पर लड़कियां ही पसंद हैं, क्योंकि वे अपेक्षाकृत कम पैसे में काम करती हैं, हर आदेश का पालन करती हैं, वे अपने शोषण पर आंखें नहीं तरेरतीं, वे मजदूरी और वेतन बढ़ाने के लिए आंदोलन या हड़ताल का सहारा नहीं लेतीं। रोजगार को विस्तार देने के लिए इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है?
हद है कि एक ही काम करने पर पुरुष को ज्यादा मेहनताना मिलता है, औरत को कम। यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश में नहीं, कमोबेश दुनिया भर में है। लड़कियों और औरतों को कम वेतन देने की वजह है, जेंडर स्टीरियोटाइप। यानी किसी को उसके लिंग, उसके चरित्र से जोड़कर देखना। औरतों के बारे में दुनिया भर में कमोबेश एक जैसी रूढ़ि बनी हुई है। जैसे कि यह मान लिया जाता है कि लड़कियों को रोजगार की बहुत जरूरत नहीं है, क्योंकि उन्हें घर नहीं चलाना पड़ता। चूंकि घर पुरुष के वेतन से चलता है, इसलिए महिलाओं का वेतन पुरुष के वेतन के बराबर हो, यह कतई जरूरी नहीं। उनका वेतन पुरुष की आय के अलावा अतिरिक्त उपार्जन है। औरतें बाहर काम नहीं करेंगी, तो भी चलेगा, किंतु पुरुष को तो बाहर कामकरना ही पड़ेगा। ऐसी भी धारणा है कि औरतों को उच्च पद इसलिए नहीं देना चाहिए, क्योंकि वे तनाव, मुश्किलों आदि का सामना नहीं कर पातीं। वे हिसाब-किताब और बुद्धि-विवेचना में कच्ची होती हैं, थोड़े से दबाव में टूट जाती हैं, भावुक होती हैं और कभी बिना कारण ही रोने लगती हैं। ऐसे में ऊंचे पद की जिम्मेदारियां भला वे कैसे संभालेंगी?
इतना ही नहीं, जिम्मेदारी वाले पदों पर बैठे लोगों को प्रायः काम के सिलसिले में बाहर जाना पड़ता है। क्या औरतों के लिए यह संभव है? यह मान लिया गया है कि महिलाएं स्वभावतः महत्वाकांक्षी नहीं होतीं; उन्हें ऊंचा पद न दीजिए, उनका वेतन न बढ़ाइए, तो भी चलेगा। सिर्फ नौकरी करना ही तो उनकी जिम्मेदारी नहीं है, उन्हें घर के काम करने हैं, शादी करनी है, मां बनना है, बच्चे भी पालने हैं। आंकड़ों के साथ यह तर्क भी पेश किया जाता है कि घर का दायित्व संभालने और बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए महिलाएं लगातार नौकरी कर ही नहीं सकतीं, वे करतीं भी नहीं।
पिछले दिनों बातचीत के दौरान एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि औरत शारीरिक रूप से कमजोर है, पुरुष ताकतवर, इसलिए समाज में पुरुष का स्थान ऊपर है, औरतों की जगह नीचे है। इसीलिए पुरुष को अधिक और महिला को कम वेतन मिलता है। मैंने उनसे पूछा कि नौकरी करना क्या मल्लयुद्ध करना है, क्योंकि मल्लयुद्ध में ही तो शारीरिक शक्ति की जरूरत पड़ती है? मैंने यह भी कहा कि शारीरिक शक्ति से हम परिवार, समाज और देश-कुछ भी नहीं चलाते। मस्तिष्क से चलाते हैं। पुरुष और स्त्री के मस्तिष्क में कोई फर्क है, यह मैं नहीं जानती। उस व्यक्ति के पास कोई उत्तर नहीं था। शायद वह बुदबुदाते हुए मुझे कोई गाली दे रहा था। ऐसी स्थितियों में गाली ही पुरुषों का अंतिम हथियार होती है।
बांग्लादेश के फलते-फूलते गारमेंट सेक्टर की चर्चा आज दुनिया भर में है। पिछले दिनों भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बांग्लादेश की अपनी यात्रा में इसका उल्लेख किया था। लेकिन कोई यह जानने की कोशिश नहीं करता कि जिन असंख्य लड़कियों की निरंतर मेहनत के कारण बांग्लादेश का वस्रोद्योग आज इस मुकाम पर पहुंचा है, वे लड़कियां किस स्थिति में हैं। कोई यह शायद जानना भी नहीं चाहता कि अंतरराष्ट्रीय श्रम कानूनों का उल्लंघन कर, तमाम विषमता से नारी को मुक्त करने के संयुक्त राष्ट्र के समझौते की धज्जियां उड़ाकर सालोंसाल किस तरह बांग्लादेश की लाखों लड़कियों को शोषण का शिकार बनाया जा रहा है।