श्रमिकों के शोषण का लंबा इतिहास रहा है। इसके विरुद्ध श्रमिकों ने समय-समय पर आवाज उठाई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रम कानून बने। मजदूर संगठित हुए, उन्हें अधिकार मिले, स्वतंत्रता मिली, सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ा। इसका असर हमने भारत में भी देखा। लेकिन नई औद्योगिक नीति और उदारीकरण का दौर परवान चढ़ने के साथ ही श्रमिक फिर शोषण का शिकार हुए। उनका सामाजिक दायरा घटा, अधिकार सिकुड़ते चले गए। इसी दौर में उद्योग जगत ने तेजी से पैर पसारे। भारत के उद्योगपति दुनिया के सौ अरब-खरबपतियों की सूची में शामिल होते चले गए, जिसे हमारे देश का मीडिया बड़े गर्व से उल्लेख करता है। लेकिन जिस बुनियाद पर इन्होंने तरक्की पाई उसकी नींव खुदती चली गई। अब मिलीभगत वाले पूंजीवाद और नव-उदारवाद का दौर है।
इस दौर में तर्क यह दिया जा रहा है कि देश का विकास थमा हुआ है। पुराने नियमों और कानूनों ने उपयोगिता खो दी है। ये कानून विकास में बाधा साबित हो रहे हैं। कड़े कानूनों के चलते देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियां निवेश में रुचि नहीं ले रही हैं। इसलिए सरकार संसद के मानसून सत्र में छह दशकों से श्रमिकों को संरक्षण देने वाले श्रम कानूनों में बदलाव के प्रस्ताव लाने जा रही है। इसमें औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947, ठेका मजदूर (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम-1970, ट्रेड यूनियन कानून-1926 में संशोधन सहित अन्य संबंधित विधेयक शामिल हैं। इन कानूनों में संशोधन कर इन्हें कॉरपोरेट के मुताबिक ढीला और लचीला बनाने की योजना है।
औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947 में प्रस्तावित संशोधन लागू होने के बाद श्रमिकों के हित प्रभावित होंगे। जिन कंपनियों में कर्मचारियों की संख्या तीन सौ तक होगी वैसी कंपनियां बड़ी आसानी से श्रमिकों को निकाल बाहर फेंकेंगी। पहले छंटनी करने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती थी, जिसमें अब सरकार का दखल नहीं होगा। मनमर्जी से कंपनियां श्रमिकों के हितों से परे जाकर अपने हित साध सकेंगी।
इसी प्रकार न्यूनतम वेतन अधिनियम में बदलाव की तैयारी है। इस अधिनियम के अनुसार सरकार अनुसूचित उद्योगों में शासकीय राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित कर श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण करती है। आवश्यकतानुसार समय-समय पर प्रत्येक पांच वर्ष के अंदर उसका पुनरीक्षण किया जाता रहा है। इसके अलावा मूल्य सूचकांक में होने वाली वृद्धि के अनुसार हर छमाही पर महंगाई भत्ते की दरों की समीक्षा भी की जाती है। उद्योगों को इसमें भी परेशानी है। वे इस कानून में ऐसा संशोधन चाहते हैं जिसमें न्यूनतम वेतन दिए जाने की मजबूरी न हो बल्कि वे स्वयं यह निर्णय करें कि उनके संस्थान में वेतन की दरें क्या हों। संशोधन के लागू होने के बाद लगभग ऐसे ही अधिकार कंपनियों को मिल जाएंगे।
कारखाना अधिनियम वहां लागू होता था जहां दस कर्मचारी बिजली की मदद से और बीस कर्मचारी बिना बिजली से चलने वाले कारखानों में काम करते हों, वहीं संशोधन के बाद यह अधिनियम क्रमश: बीस और चालीस मजदूरों वाले संस्थानों पर लागू होगा। ओवरटाइम की सीमा भी पचास घंटे से बढ़ा कर सौ घंटे कर दी गई है और वेतन सहित वार्षिक अवकाश की पात्रता को दो सौ चालीस दिनों से घटाकर नब्बे दिन कर दिया गया है। ऐसे कदमों से छोटे कारखाना मालिकों की भी बड़ी संख्या कारखाना अधिनियम के दायरे से बाहर हो जाएगी और मजदूरों को इस कानून के तहत मिलने वाली सुविधाएं प्रदान करने की जिम्मेदारी से उन्हें कानूनी तौर पर छुट्टी मिल जाएगी। ऐसे ही लघु उद्योग (स्माल फैक्ट्रीज) अधिनियम में बदलाव के बाद प्रत्येक कारखानेदार को श्रमिक पहचान संख्या देने का प्रावधान किया गया है। अब हर कारखानेदार खुद ही एक अनुपालन-रिपोर्ट दाखिल करके सत्यापन करेगा कि उसके प्रतिष्ठान में सभी कानूनों का अनुपालन किया जा रहा है या नहीं। इससे बुरा क्या हो सकता है कि जो अभियुक्त होगा वहीं जांचकर्ता और गवाह भी होगा।
कानूनों में बदलाव का सबसे ज्यादा असर ट्रेड यूनियनों पर पड़ने वाला है। नए मसविदे के श्रमिक संगठन कमजोर पड़ेंगे और उनके अधिकार सीमित होंगे। श्रमिक संघों के गठन के लिए कम से कम दस प्रतिशत कर्मचारी या कम से कम सौ कर्मचारियों की जरूरत होगी। जबकि पहले किसी कंपनी में कम से कम सात लोग मिल कर यूनियन बना सकते थे। नए कानून के तहत औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947, ट्रेड यूनियन अधिनियम-1926 और औद्योगिक रोजगार अधिनियम-1946 को एक ही कानून के अंतर्गत मिला दिया जाएगा। अभी तक कारखानों में महिला श्रमिकों और किशोरों को जोखिम भरे कामों पर नहीं लगाया जा सकता, पर अब संशोधन के द्वारा यह प्रावधान करने का प्रस्ताव किया गया है कि केवल किसी गर्भवती महिला या विकलांग व्यक्ति को जोखिम भरे काम पर न लगाया जाए। इसका सीधा अर्थ यह है कि सरकार का इरादा महिलाओं और किशोर श्रमिकों को भी जोखिम भरे कार्यों में लगाने का है।
अब बात ठेका मजदूर (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम-1971 की। ठेका मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया यह कानून अब बीस या इससे अधिक मजदूरों वाली फैक्टरी पर लागू होने की जगह पचास या इससे अधिक मजदूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब कि अब कानूनी तौर पर भी ठेका मजदूरों की बर्बर लूट पर कोई रोक नहीं होगी। इन मजदूरों के लिए कानून का पहले से कोई मतलब नहीं रह गया था। इन्हें न कानून के मुताबिक मजदूरी मिलती थी और न ही समयावधि में मेहनताने का भुगतान होता था। दुगुनी दर से ओवरटाइम और इएसआइ और पीएफ का अधिकार तो इनके लिए सपने जैसा रहा है।
सरकार अप्रेंटिसशिप एक्ट में भी बदलाव करने जा रही है। इस कानून के लागू होने के बाद विवाद की स्थिति या दुर्घटना होने की स्थिति में कंपनी मालिक या जिम्मेदार व्यक्ति को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकेगी। ऐसे संशोधन के जरिए संगठित क्षेत्र को प्राप्त सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान को बदल कर सीमित किया जा रहा है। सरकार कर्मचारी भविष्य निधि में विकल्प देने की तैयारी में है। कर्मचारियों को इपीएफओ और नई पेंशन योजना, दोनों में चुनाव का विकल्प दिया जाएगा। कुल मिला कर इन संशोधनों का मतलब यही होगा कि अब और बड़ी संख्या में श्रमिकों को श्रम कानूनों के तहत मिलने वाले फायदे जैसे सफाई, पीने का पानी, सुरक्षा, बाल श्रमिकों का नियोजन, काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश, छुट्टियां, ओवरटाइम,सामाजिकसुरक्षा आदि सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा, या इनके लिए सरकार पर निर्भर होना पड़ेगा।
श्रम सुधार की आड़ में श्रम कानूनों को मजदूरों के विरुद्ध अमली जामा पहनाने की तैयारी के बीच भारतीय परिप्रेक्ष्य में लेनिन की बातें भी सच साबित हो रही हैं: ‘जहां शोषण होता है वहां प्रतिरोध अवश्य होता है।’ देश की सभी ट्रेड यूनियनों और संगठनों ने सरकार के एक साल पूरे होने पर छब्बीस मई को संयुक्त रूप से इन बदलावों का विरोध किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन भारतीय मजदूर संघ ने इस विरोध प्रदर्शन की अगुआई की। नेशनल ट्रेड यूनियन, हिंद मजदूर सभा, सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस, ऑल इंडिया यूनाइटेड ट्रेड यूनियन सेंटर, ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस, सेल्फ इंप्लायड वुमेन्स एसोसिएशन आॅफ इंडिया सहित कई श्रमिक संगठन इस विरोध-प्रदर्शन में शामिल हुए।
श्रम सुधार के नाम पर हो रहे इन बदलावों को श्रमिक संगठनों ने ‘हायर एंड फायर’ की नीति करार दिया है जिसका मकसद श्रमिकों को कानूनी दायरे से बाहर करना और ट्रेड यूनियनों के अधिकारों में कटौती करना है। यूनियनों का कहना है कि अगर सरकार इन संशोधनों को अमल में लाती है तो इससे कंपनियों को मनमानी करने की खुली छूट मिल जाएगी। कंपनियां जरूरत पड़ने पर श्रमिकों की भर्तियां करेंगी और जरूरत न होने पर उन्हें निकाल फेंकेंगी। इन संशोधनों के बाद श्रमिकों के अधिकार सीमित होंगे। विवाद की स्थिति या अधिकारों का हनन होने पर श्रमिक अदालत में अपना पक्ष भी नहीं रख पाएंगे। कारखानों में जब इंस्पेक्टर की जगह समन्वयक होंगे, तो क्या वे श्रमिकों के हितों की रक्षा कर पाएंगे?
श्रम कानून के संविधान की समवर्ती सूची में शामिल होने के कारण भी समस्या पैदा हुई है। कई राज्य अपने-अपने हिसाब से इसमें संशोधन कर चुके हैं। ऐसा ही वर्ष 2004 में गुजरात में हुआ, वहां औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों में बदलाव कर श्रम कानूनों को लचीला बनाया गया। हाल में श्रम सुधार के नाम पर श्रम कानूनों में बदलाव भाजपा की राजस्थान और मध्यप्रदेश की सरकारें कर चुकी हैं, जिन्हें लेकर आज भी राजस्थान में भारतीय मजदूर संघ समेत कई श्रमिक संगठन विरोध कर रहे हैं। अब महाराष्ट्र और हरियाणा की सरकारें भी इसी ओर अग्रसर हैं।
अब तक देश में श्रम कानूनों में बदलावों को लेकर दो श्रम आयोग बने हैं। पहले श्रम आयोग का गठन 1966 में किया गया था, जिसकी सिफारिशें सामान्यत: श्रम संरक्षण पर केंद्रित थीं। दूसरे श्रम आयोग का गठन रवींद्र वर्मा की अध्यक्षता में वर्ष 1999 में किया गया था। वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को ध्यान में रख कर इसने बदलाव सुझाए थे। वर्मा आयोग की सिफारिशों को मान लिया जाए तो निश्चित ही उद्योगपतियों का मुनाफा बढ़ जाएगा। लेकिन यह सब श्रमिकों के अधिकारों के हनन और शोषण से जुड़ा होगा। छंटनी और तालाबंदी का अधिकार पूंजीपतियों को देने से बेरोजगारी कम नहीं होगी बल्कि और बढ़ेगी। इससे नई परिस्थितियों का जन्म होगा। छंटनी किए गए मजदूरों का जीवन और मुश्किल होगा। फिर बेहद सस्ते श्रम और मनुष्य से एक दर्जा नीचे जीने की परिस्थितियों का निर्माणहोगा।
मोदी सरकार देश की अर्थव्यवस्था में ‘बदलाव’ चाहती है, वह भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब, ‘मेक इन इंडिया’ को मजबूत और देश में निवेश और रोजगार बढ़ना चाहती है। इसलिए निश्चय ही उपयोगिता खो चुके पुराने नियमों और कानूनों में बदलाव होना चाहिए। लेकिन जो कानून हमारे देश के पिछड़ों, वंचितों और गरीबों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते हैं तो उनमें बदलाव का कोई औचित्य नहीं है। उद्योगपति संगठित होकर अपनी बातें मनवाते हैं, रियायतें और सुविधाएं पाते हैं। लेकिन जब अपने अधिकारों और छोटी-मोटी राहत के लिए श्रमिक वर्ग संगठित होता है तो इसे देश के विकास में बाधा साबित करने की कोशिश होने लगती है। अब तक कानूनों और नियमों को जरूरत के मुताबिक बदला जाता रहा है। श्रम कानूनों में बदलाव कोई नई बात नहीं है। असली मुद्दा इन्हें बदलने या समाप्त करने का नहीं, बल्कि बदले जाने के पीछे छिपे मकसद और नीयत का है।