भारत में तकरीबन साढ़े सात करोड़ परिवार ऐसे हैं, जिनके घरों��� में बिजली नहीं है। बिजली के उत्पादन के लिए हम कोयले का आयात करते हैं। हम पूरे देश में बिजली का पारेषण करते हैं, जिसमें समग्र तकनीकी और वाणिज्यिक हानि के तौर पर 25 फीसदी बिजली का नुकसान उठाना पड़ता है। जहां तक बिजली के दाम के सवाल है, तो यह जिन दामों पर बेची जाती है, वे बाजार की वास्तविकता से बिल्कुल मेल नहीं खाते। बिजली की लगातार बढ़ती मांग और आपूर्ति के निम्न स्तर के बीच चौड़ी होती खाई की वजह से राज्य विद्युत बोर्डों की हालत दीवालिया जैसी हो गई है, जिन्हें बस मदद पैकेजों का ही सहारा रह गया है। दरअसल, भारत संरचनात्मक तौर पर बिजली की कमी से जूझ रहा है।
बिजली संकट की इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने ऊर्जा संयंत्र की स्थापना के नियमों को सरल बनाया है, ईंधन की आपूर्ति पर ध्यान दिया है और बिजली के वितरण व भुगतान के तौर-तरीकों में भी सुधार किया है। इसके बावजूद देश के सभी क्षेत्रों में चौबीस घंटे सस्ती बिजली उपलब्ध कराने की राह में चार गंभीर चुनौतियां हैं- कोयले की कम आपूर्ति, दीवालिया हो चुकी विद्युत वितरण कंपनियों की पुनर्संरचना, गैर-विभेदकारी खुली पहुंच का प्रावधान और बिजली की कीमत तय करते समय बाजार की वास्तविकताओं को ध्यान में रखना।
कोयला आपूर्ति की पुनर्संरचना
पिछले वर्ष को छोड़ दें, तो भारत में कोयले का उत्पादन वार्षिक तौर पर 53 से 55 करोड़ टन के बीच स्थिर रहा है। ऐसे में, बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच के अंतर के 2017 तक 20 करोड़ टन तक पहुंचने की आशंका है। कोयले की आपूर्ति बढ़ाने के लिए आधुनिकतम तकनीक की मदद से इसकी उत्पादन क्षमता बढ़ानी चाहिए। भूमिगत खनन पर भी खास जोर देना होगा। बावजूद इसके कि भारत में कोयले का बड़ा हिस्सा 300 मीटर से नीचे की गहराई पर पाया जाता है, वित्त वर्ष 2012 के बाद से भूमिगत खनन के जरिये प्राप्त होने वाले कोयले की मात्रा में कमी आई है। मानसूनी वर्षा, निचली भूमि और पर्यावरणीय कारकों को ध्यान में रखते हुए यह बहुत जरूरी है कि भूमिगत खनन को प्रोत्साहन दिया जाए। कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) से अलग कोयला आयात के लिए एक प्लेटफॉर्म बनाया जाना चाहिए, ताकि ऊर्जा संयंत्रों को अबाधित कोयला आपूर्ति पर फोकस करके सभी उपभोक्ताओं को उचित कीमत पर बिजली मुहैया कराई जा सके।
बिजली वितरण कंपनियों की आर्थिक मजबूती
देश के ऊर्जा क्षेत्र पर पांच लाख करोड़ रुपये का बकाया है और इसमें हर वर्ष 60 हजार करोड़ रुपयों का इजाफा भी हो रहा है। 2012 में इसे राहत देने की एक योजना बनी थी, जो नाकामयाब रही। बिजली की कीमतों में कम बढ़ोतरी, बढ़ती बिजली चोरी, लागत में वृद्धि और लगातार बढ़ते कर्ज के चलते राज्य विद्युत बोर्डों को एक बार फिर राहत पैकेज का ही सहारा रह गया है। विद्युत वितरण कंपनियों की आर्थिक हालत खस्ता बनी हुई है। 2012 के वित्त वर्ष में विद्युत वितरण कंपनियों को 80 हजार करोड़ रुपये का समग्र तकनीकी और वाणिज्यिक नुकसान उठाना पड़ा था। रीस्ट्रक्चर्ड एक्सिलरेटेड पावर डेवलपमेंटऐंड रिफॉर्म्स प्रोग्राम (आर-एपीडीआरपी) की शुरुआत के बावजूद बगैर मीटर के बिजली की खपत, भुगतान के संग्रह की अक्षम व्यवस्था और तकनीकी नुकसान की ऊंची दरों के चलते समग्र तकनीकी व वाणिज्यिक नुकसान बदस्तूर जारी है। इन कंपनियों पर कर्ज के बोझ को ब्याज की दरों को कम करके हल्का किया जाना चाहिए। इसके अलावा महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लागू डिस्ट्रीब्यूशन फ्रेंचाइज मॉडल भी इस संदर्भ में फायदेमंद साबित हो सकता है।
खुली पहुंच वाली व्यवस्था
एक बंद विद्युत व्यवस्था में नव प्रवेशियों को काफी मुश्किलें आती हैं। ग्रिड तक खुली पहुंच सुनिश्चित किए जाने से एक प्रतिस्पर्धी बिजली बाजार पैदा होगा। इसके अलावा हमें अपने पारेषण तंत्र में सुधार लाने की भी जरूरत है। सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के जरिये नियोजित ढंग से पारेषण क्षमता बढ़ानी होगी। बिजली के बड़े उपभोक्ता और उत्पादकों को स्मार्ट मीटर तकनीक अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। लोड डिस्पैच सेंटरों पर ग्रिड से जुड़ी पूरी जानकारी सार्वजनिक किए जाने की व्यवस्था भी होनी चाहिए। राज्य विद्युत विनियामक आयोगों (एसईआरसी) को बिजली की आपूर्ति की वर्तमान लागत के आकलन और खुली पहुंच पर लगने वाले शुल्क को संगत बनाने के लिए एक रोडमैप बनाना चाहिए।
बिजली का तर्कसंगत मूल्य
दुखद है कि भारत में बिजली का मूल्य वोट बैंक के आधार पर तय होता रहा है। बिजली का जो खरीद मूल्य होता है, वह विद्युत वितरण कंपनियों के कुल खर्च का तकरीबन 74 फीसदी होता है। इसके बावजूद बिजली के दाम काफी कम रखे जाते हैं। देश के आधे राज्यों में बिजली का मूल्य उसकी उत्पादन लागत से कम है। इसके अलावा, विभिन्न उपभोक्ता समूहों को जो अनियमित सब्सिडी मिलती है, उससे प्रत्येक उपभोक्ता को मिलने वाली बिजली का औसत मूल्य निकालना मुश्किल हो जाता है। इसमें संदेह नहीं कि भारत में वाजिब दरों पर बिजली की सर्वत्र उपलब्धता और पहुंच सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है। खुली पहुंच वाले प्रावधान से बड़े उपभोक्ताओं को यह सहूलियत मिल सकेगी, कि वे विभिन्न प्रतिस्पर्धी ऊर्जा कंपनियों में से चुनाव कर सकें। मगर यह तभी मुमकिन है, जब पारेषण तंत्र में बड़ा निवेश किया जाए, और सभी राज्यों में बिजली तक खुली पहुंच की एक तर्कसंगत व्यवस्था कायम की जाए।