चंद महीने पहले नगालैंड में रेप के एक आरोपी को जेल से निकालकर भीड़ ने मार डाला था। नालंदा व नगालैंड में घटी घटनाओं में एक साझा सूत्र दिखाई देता है। भीड़ जब हत्या पर उतारू थी, तब कुछ लोग वारदात का वीडियो बनाने में जुटे थे, तस्वीरें उतार रहे थे। इनको बाद में सोशल मीडिया पर साझा किया गया। संविधान में भीड़ के इंसाफ की कोई जगह नहीं है। गुनाह चाहे जितना भी बड़ा हो, फैसला अदालत करती है। यह समाज में बढ़ती असहिष्णुता का परिणाम है या लोगों का कानून से भरोसा उठते जाने का? इसकी गंभीर समाजशास्त्रीय व्याख्या की जरूरत है। जिस तरह से नालंदा के स्कूल में बच्चों की लाश मिली, उसी तरह कुछ वर्ष पूर्व आसाराम बापू के आश्रम में रहस्यमय परिस्थितियों में बच्चों की लाशें मिली थीं। तब काफी हंगामा मचा, जांच आयोग का गठन हुआ था। करीब सात साल बाद भी उस केस के मुजरिमों को सजा नहीं हो पाई है। निर्भया रेप केस भी फास्ट ट्रैक कोर्ट आदि से गुजरकर सुप्रीम कोर्ट में लटका है। जनता को लगता है कि आंदोलनों और सरकार-पुलिस की तमाम कोशिशों के बावजूद अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती है या बहुत देर से मिलती है। देर से मिलता न्याय हमारी पूरी न्याय-व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है। न्यायिक प्रक्रिया में हो रही देरी से समाज का सब्र टूटने लगा है। नतीजतन, नालंदा जैसी बदले की कार्रवाई बढ़ी है। ऐसी घटनाओं के काफी खतरनाक परिणाम संभव हैं, जो हमारे लोकतंत्र को कमजोर कर सकते हैं।