क्या ऐसे ही होगा आर्थिक विकास– परंजय गुहाठाकुरता

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हाल ही में 10 फीसदी की आर्थिक विकास दर को मुमकिन बताया है। इसके लिए उन्होंने सरकार की ओर से हो रहे आर्थिक सुधारों, नीतिगत बदलावों, बुनियादी ढांचे जैसे क्षेत्रों में धन का प्रवाह बढ़ाने पर भरोसा जताया। साथ ही, अच्छे मानसून की उम्मीद भी उन्होंने जाहिर की। मगर, सवाल यह है कि क्या यह इतना आसान होगा। यह अचानक नहीं है कि वित्त मंत्री के इस आशावाद के बरक्स रिजर्व बैंक के गवर्नर पिछले काफी समय से अर्थव्यवस्था के प्रति दबी-छिपी आशंका जाहिर करते रहे हैं। बल्कि अब तो उन्होंने महामंदी की आशंका की भी बात कर डाली है, भले ही इसमें हमारी कोई सीधी भूमिका न हो।

इससे किसी को इनकार नहीं कि भूमि अधिग्रहण विधेयक अगर पारित हो जाता है, तो आर्थिक विकास की गति में तेजी आएगी। 2013 में यूपीए सरकार जो भूमि अधिग्रहण कानून लेकर आई थी, उससे ग्रामीण क्षेत्रों का समग्र विकास मुमकिन नहीं हो पा रहा था। जैसे, यूपीए सरकार द्वारा बनाए गए कानून से गांवों में सिंचाई, बुनियादी ढांचा, गरीबों के लिए सस्ते आवास जैसी जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही थीं। इसीलिए एनडीए सरकार ने आते ही उस कानून को बदलने की बात कही थी। लेकिन मोदी सरकार जिस भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित कराने पर इतना जोर दे रही है, उसमें भी कई मुद्दों पर विवाद है। मसलन, जिसकी भूमि अधिगृहीत की जा रही है, उसकी अनुमति की क्या व्यवस्‍था होगी। सामाजिक प्रभाव आकलन को इस सरकार ने क्यों हटा दिया है? खुद जेटली मान रहे हैं कि यह बिल आज राजनीतिक तौर पर बेहद विवादास्पद हो गया है। इसके बावजूद वह इसे पारित कराने के लिए संसद की संयुक्त बैठक बुलाने की बात कर रहे हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-108 के मुताबिक किसी बिल के संसद के एक सदन द्वारा पारित किए जाने और दूसरे सदन को भेजे जाने के बाद, अगर, दूसरे सदन ने बिल को अस्वीकार कर दिया हो, या संशोधनों को लेकर दोनों सदन अंतिम तौर पर असहमत हों, या दूसरे सदन को बिल प्राप्त होने की तारीख से उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना छह महीने से ज्यादा समय बीत गया हो, तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अनुमति दे सकते हैं। दरअसल एनडीए सरकार के पास लोकसभा में तो बहुमत है, मगर राज्यसभा में नहीं। ऐसे में, अगर संसद का संयुक्त सत्र बुलाया जाता है, तो इस बिल को पारित कराने में केंद्र सरकार को जरा भी मुश्किल नहीं आने वाली। हालांकि इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि देश के इतिहास में किसी कानून को बदलने या फिर कानून बनाने के लिए अब तक महज तीन बार ही दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का सहारा लिया गया है। पहली बार 1961 में नेहरू के समय में (दहेज विरोधी अधिनियम), दूसरी बार 1978 में (बैंकिंग सर्विस कमीशन को खत्म करने के लिए) जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे, और तीसरी बार 2002 में (पोटा), जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।

मगर सरकार को समझना होगा कि अब जैसे राजनीतिक हालात बनते जा रहेहैं, और अपने लोग सरकार की मुश्किलें जिस तरह बढ़ा रहे हैं, उसमें भूमि अधिग्रहण विधेयक कानून को पारित कराने में अतिशय बल देने का भी शायद बहुत मतलब नहीं होगा।

संसद का मानसून सत्र शुरू होने में ज्यादा समय नहीं बचा है। मगर मोदी सरकार के कई मंत्री जिस तरह कई मुद्दों पर फंसे हैं, उन्हें देखते हुए साफ है कि मानसून सत्र बहुत आसान नहीं होने वाला। बल्कि संसद का अगला सत्र अगर सुचारु रूप से नहीं चलता है, और अर्थव्यवस्था के हित में कदम नहीं उठते हैं, तो इसके लिए सरकार ज्यादा जिम्मेदार होगी, क्योंकि राजनीतिक मामलों में उसके रवैये ने ही यह गतिरोध पैदा किया है। सरकार के लिए दिक्कत बढ़ाने वाली एक दूसरी बात यह भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम जैसे कई संगठनों ने भी भूमि अधिग्रहण विधेयक के कई पहलुओं का विरोध किया है। भारतीय किसान संघ ने मांग की है कि अधिग्रहण के लिए कम से कम 51 फीसदी किसानों की सहमति का प्रस्ताव शामिल किया जाना चाहिए। इन संगठनों की शिकायत है कि अधिगृहीत जमीन को निजी कंपनियों को नहीं देने का वायदा तो किया जा रहा है, मगर इसे विधेयक में शामिल क्यों नहीं किया जा रहा।

फिर सिर्फ भूमि अधिग्रहण विधेयक के पारित होने से ही चमत्कार नहीं हो जाएगा। कच्चे तेल की कम कीमत का लाभ उठाने का समय खत्म हो चुका है। अब कच्चे तेल की कीमत बढ़ने वाली है। इससे महंगाई पर काबू पाना मुश्किल होगा। रिजर्व बैंक बार-बार इसी आशंका की ओर हमारा ध्यान दिला रहा है। यह भी याद रखना चाहिए कि लंबे समय तक पेट्रोल-डीजल के दाम कम रहने के बावजूद आम आदमी को कोई राहत नहीं मिली थी। मेक इन इंडिया से भी कोई बड़ा फर्क अभी तक देखने को नहीं मिला है।

इसके अलावा जीडीपी और रोजगार के बीच रिश्ते को समझना भी जरूरी है। वित्त मंत्री जीडीपी की विकास दर बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं, पर उन्हें समझना चाहिए कि जीडीपी के बढ़ने का मतलब रोजगार का बढ़ना नहीं होता। यूपीए शासन के दस साल में जीडीपी तो बढ़ा, पर उस तेजी से रोजगार नहीं बढ़े। इसलिए सवाल यह भी है कि रोजगार में संतोषजनक वृद्धि के बगैर विकास दर में बढ़ोतरी का क्या लाभ होगा।

वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं की चुनौतियां भी आने वाले दिनों में हमारी कड़ी परीक्षा लेने वाली हैं। यूनान के संकट का असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ब्याज दर बढ़ाता है, तो उससे भी हम प्रभावित होंगे। इसलिए हमारे आर्थिक फंडामेंटल्स दूसरे देशों की तुलना में भले ही हमें आशान्वित करें, इसके बावजूद यह नहीं माना जा सकता कि कमजोरियों और वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों के बावजूद हमारा आर्थिक विकास जारी रहेगा।

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