फिर गांवों में कैसे हो इलाज- उमेश चतुर्वेदी

ग्रामीण जनसंख्या को फौरी और सामान्य रोगों का इलाज मुहैया कराने की दिशा में जिस नर्स प्रैक्टिशनर के कोर्स को केंद्र सरकार ने इसी अप्रैल में मंजूरी दी थी, उसे चिकित्सा शिक्षा की सर्वोच्च संस्था इंडियन मेडिकल काउंसिल ने नकार दिया है। क्या काउंसिल की सोच भी शहर केंद्रित है? अगर नहीं, तो फिर वह पंजीकृत डॉक्टरों को गांवों में प्रैक्टिस करने या अगर वे सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात हैं, तो ग्रामीण क्षेत्रों में ड्यूटी करने के लिए प्रेरित करने को लेकर क्या कर रही है? ऐसा नहीं कि काउंसिल के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं। वह कह सकती है कि ग्रामीण जनसंख्या को इलाज दिलाने के लिए डॉक्टरों को सलाह देती रहती है। पर सवाल यह है कि कोर्स पूरा होने के बाद प्रोफेशनल शपथ लेने वाले डॉक्टर फिर भी गांवों में जाना पसंद क्यों नहीं कर रहे।

देश वैसे ही विकसित देशों की तुलना में डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है। देश की कुल जनसंख्या करीब 125 करोड़ है। पर 2013 के आंकड़ों के मुताबिक, यहां रजिस्टर्ड डॉक्टरों की संख्या महज नौ लाख 18 हजार ही है। पर मात्र साढ़े छह लाख डॉक्टरों की ही सेवा देश की आबादी को हासिल हो पाती है। यानी देश में 1,217 लोगों पर एक डॉक्टर है। पर गांवों की स्थिति यह है कि डॉक्टर वहां जाना ही नहीं चाहते। विकसित देशों के न्यूनतम आंकड़ों के मुताबिक देश में करीब चार लाख डॉक्टरों की कमी है। डॉक्टरों की जरूरत शहरी क्षेत्रों में भी है। इसकी वजह हर साल हजारों डॉक्टरों का विदेश पलायन भी है।

डॉक्टरों की ऐसी कमी 1960 के दशक में अमेरिका में भी हुई थी। तब वहां इलाज के लिए नर्स प्रैक्टिशनर की शुरुआत की गई थी। देहाती क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी देखते हुए अपने यहां भी नर्स प्रैक्टिशनर कोर्स को मंजूरी दी गई, ताकि नए तरीके से प्रशिक्षित नर्सें सेवा करने के साथ छोटे-मोटे रोगों का इलाज और ऑपरेशन भी कर सकें। यूरोप के कई देशों और ऑस्ट्रेलिया में भी नर्स प्रैक्टिशनर जन स्वास्थ्य की दिशा में अहम बने हुए हैं। अपने यहां सालाना दो लाख से ज्यादा नर्सें प्रशिक्षित होकर निकलती तो हैं, पर उनमें से ज्यादातर बेहतर वेतन और रोजगार के चलते विदेश चली जाती हैं। जिस कारण देश में नर्स की लगातार कमी बनी रही है। नर्स प्रैक्टिशनर कोर्स शुरू होने से इस कमी पर काबू पाया जा सकता था।

पिछले दशक के आखिरी दिनों में इसी तरह रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनरों पर रोक लगाई गई और उन्हें झोलाछाप बताकर प्रतिबंधित किया गया। अब भी पुलिस और दूसरी संस्थाएं ग्रामीण और गरीब इलाकों में काम कर रहे सस्ते-सुलभ डॉक्टरों के खिलाफ झोलाछाप के नाम पर ही कार्रवाई करती हैं। बेशक ऐसे कुछ मामलों में मरीजों की हालत खराब हुई या फिर मौतें भी हुई हैं। पर ऐसी असावधानियां, और मरीजों के पेट में तौलिया और कैंची छोड़ने की घटनाएं कथित बड़े अस्पतालों में भी हुई हैं।

रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए इलाज की उम्मीद थे या हैं। पाबंदी के बावजूद वे अब भी वहां इलाज के प्राथमिक स्रोत बने हुए हैं। ग्रामीण आबादीके लिए प्रैक्टिशनर नर्स भी इलाज का अच्छा विकल्प हो सकती है। इसलिए बेहतर होगा कि मेडिकल काउंसिल के ऐतराज को दरकिनार कर सरकार देश की करीब पैंसठ फीसदी ग्रामीण आबादी को सहज इलाज मुहैया कराने के लिए इन प्रैक्टिशनर्स की व्यवस्था को लागू करे।

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