हर साल जून का महीना देश के उन लाखों परिवारों के लिए ढेर सारी परेशानियां लेकर आता है, जिनके बच्चों ने कक्षा-12 को पास कर लिया है। माना यही जाता है कि मेहनत और उसके अच्छे नतीजे भविष्य के लिए कई दरवाजे खोल देते हैं। पर स्कूली शिक्षा से कॉलेज शिक्षा की ओर जाने वाले मार्ग पर आजकल अक्सर ऐसा नहीं होता। अच्छे विश्वविद्यालय और कॉलेज में दाखिला कठिन होता जा रहा है।
मई का महीना खत्म होते-होते बुलंदशहर के मनोज कुमार गोयल को एक अच्छी खबर मिली और उनकी ढेर सारी उम्मीदें बंधीं। सीबीएसई की 12वीं परीक्षा में उनके बेटे सिद्धार्थ को न सिर्फ प्रथम श्रेणी मिली, बल्कि उसे जितने नंबर मिले, उतने उनके परिवार में आज तक किसी को नहीं मिले थे। लेकिन जून आते-आते उनकी सारी खुशियां काफूर हो चुकी हैं। वह चाहते थे कि अपने बेटे को दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी अच्छे कॉलेज में प्रवेश दिलाकर उसके अच्छे भविष्य की बुनियाद रख दें।
जून का महीना आधे से ज्यादा बीत चुका है और उन्हें यह भी नहीं पता कि 87 फीसदी अंक पाने वाले उनके बेटे को किसी कॉलेज में एडमिशन मिल भी पाएगा या नहीं। कट-ऑफ, कोटा, बेस्ट फोर, वोकेशनल कोर्स की सारी बहस में वह अपने बहुत से सपनों को भूल भी चुके हैं। आजकल उनका हर दिन विभिन्न विश्वविद्यालयों के वेबसाइट खंगालने और तरह-तरह के विकल्पों पर सोचने में बीत जाता है। चिंता यह भी है कि किसी निजी कॉलेज या विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल भी गया तो उसके लिए भारी फीस का इंतजाम कैसे करेंगे?
किसी भी तरह से वह अपने बेटे को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस विश्वविद्यालय में नहीं भेजना चाहते, जहां से खुद उन्होंने ग्रेजुएशन की डिग्री ली थी। शिक्षा संस्थान का ब्रांड भावी करियर को किस तरह प्रभावित करता है, इसे वह अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन कोई रास्ता नहीं सूझ रहा।
अच्छे नंबरों के बावजूद
मनोज कुमार गोयल अकेले नहीं हैं। हर साल जून का महीना देश के उन लाखों परिवारों के लिए ढेर सारी परेशानियां लेकर आता है, जिनके बच्चों ने कक्षा-12 को पास कर लिया है। खासकर उन बच्चों के परिवारों को, जिन्होंने खूब मेहनत की और अच्छे नंबर हासिल किए। वैसे माना यही जाता है कि मेहनत और उसके अच्छे नतीजे भविष्य के लिए कई दरवाजे खोल देते हैं। लेकिन स्कूली शिक्षा से कॉलेज शिक्षा की ओर जाने वाले मार्ग पर आजकल अक्सर ऐसा नहीं होता। अच्छे विश्वविद्यालय और कॉलेज में प्रवेश पाना लगातार कठिन होता जा रहा है। और इससे जो समस्याएं खड़ी होती हैं, वे सिर्फ बच्चों को नहीं, बल्कि उनके परिवार को भी परेशान करती हैं।
समस्या का सबसे बड़ा कारण मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर है। हर साल करोड़ों बच्चे कक्षा-12 पास करते हैं। दस लाख से ज्यादा तो सीबीएसई बोर्ड से ही निकलते हैं। फिर विभिन्न राज्यों के शिक्षा बोर्ड से इस स्तर को पार करने वाले बच्चों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होती है। यह ठीक है कि पिछले कुछ समय में शिक्षा का खासा विस्तार हुआ है। बहुतसारे नए विश्वविद्यालय, कॉलेज और कोर्सेज शुरू हुए हैं, लेकिन यह संख्या उतनी बड़ी नहीं है कि जरूरत पूरी हो सके। इससे कहीं ज्यादा बड़ी समस्या अच्छे और प्रतिष्ठित कॉलेजों की कमी की है।
रह जाती हैं सीटें खाली
इस समस्या को इंजीनिर्यंरग के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। इस साल देशभर में डेढ़ लाख से ज्यादा बच्चों ने जेईई की प्रवेश परीक्षा दी, जिनमें से सिर्फ 25 हजार अगले चरण में पहुंच सके। इन 25 हजार में कुछ को प्रतिष्ठित और बाकी को ठीक-ठाक इंजीनिर्यंरग संस्थानों में प्रवेश मिल जाएगा। बाकी जो रह गए हैं, वे विभिन्न राज्यों के तकनीकी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अपनी-अपनी किस्मत आजमाएंगे। और वहां स्थिति ऐसी है कि पिछले कुछ साल से ऐसे कई कॉलेजों में सीटें होते हुए भी लोग प्रवेश नहीं लेना चाहते। दरअसल, उन संस्थानों की साख बहुत अच्छी नहीं है। इसलिए छात्रों को उनमें दाखिला लेते हुए बहुत फायदा नहीं दिखता। बहुत-सी जगह सीटें खाली रह जाती हैं। और कई तकनीकी कॉलेज तो बंद होने के कगार पर पहुंच चुके हैं।
सबको चाहिए डीयू
उच्च शिक्षा के लिए एक बड़ा आकर्षण होता है दिल्ली विश्वविद्यालय। इसका आकर्षण कई कारणों से है। एक तो इस विश्वविद्यालय और इसके कॉलेजों की प्रतिष्ठा काफी पुरानी और बड़ी है। दूसरा, अन्य विश्वविद्यालयों की तुलना में यहां छात्रों को बहुत कम फीस देनी पड़ती है। निजी विश्वविद्यालयों के मुकाबले तो ये बहुत सस्ते पड़ते हैं। इसके अलावा, हॉस्टल फीस और अन्य खर्चे भी अपेक्षाकृत काफी कम होते हैं। लेकिन यहां प्रवेश पाना लगातार कठिन होता जा रहा है। पिछले साल यहां 54 हजार सीटों के लिए कुल दो लाख 80 हजार छात्रों ने आवेदन किया था। यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, और इसी के साथ बढ़ती जा रही है इसके विभिन्न कॉलेजों की कट-ऑफ। पहले दौर में कई कॉलेजों में उन्हीं बच्चों को प्रवेश मिल पाता है, जिन्होंने 12वीं की परीक्षा में 99 फीसदी अंक हासिल किए हों। किसी-किसी विषय में तो यह कट-ऑफ 100 फीसदी तक जा पहुंचती है। अंकों के इसी खेल पर पिछले साल अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार चेतन भगत ने टिप्पणी की थी: कक्षा-12 में मुझे जो अंक मिले थे, उसके हिसाब से दिल्ली विश्वविद्यालय तो छोड़िए, मुझे शायद दिल्ली शहर की सीमा में भी प्रवेश न मिल पाए।
दिक्कत इसलिए भी आती है कि प्रवेश पाने में नाकाम रहने वाले अगले साल फिर से प्रवेश की कोशिश करते हैं। महाराष्ट्र के नागपुर से दिल्ली विश्वविद्यालय में आवेदन करने आए अशोक महाजन ने बताया कि पिछले साल कट-ऑफ में न आने की वजह से मेरे बेटे को डीयू में दाखिला नहीं मिला, लेकिन इस साल हम फिर यहां आए हैं। उन्होंने बताया कि डीयू में दाखिला न मिलने की वजह से हमने नोएडा के कुछ कॉलेजों का रुख किया, लेकिन वहां की फीस डीयू से कई गुना ज्यादा होने की वजह से हम वहां दाखिला नहीं ले पाए। इस बार उम्मीद है कि बेटे को कंप्यूटर साइंस में दाखिला मिल जाएगा। इसी तरह बिहार के सहरसा से डीयू में अपनीबेटीके साथ आवेदन करने आईं रिचा मिश्रा ने बताया कि उनकी बेटी को 92 फीसदी अंक होने के बाद भी पिछले साल उनके मन-मुताबिक कॉलेज नहीं मिल पाया था। इस वजह से वह इस साल दोबारा से आवेदन करने के लिए आई हैं।
प्लेसमेंट का आकर्षण
कुछ खास विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का जलवा इस बार भी देखने को मिल रहा है। इनमें भारी संख्या में हो रहे आवेदनों की एक वजह वहां से कोर्स पूरा होने के बाद छात्रों को मिलने वाला अधिक प्लेसमेंट पैकेज भी है। बीते कुछ वर्षों में दिल्ली विश्वविद्यालय और इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में देश-विदेश की कई बड़ी कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आ रही हैं। उन्होंने कैंपस प्लेसमेंट के दौरान छात्रों को लाखों रुपये के पैकेज भी दिए हैं। पिछले साल यहां गूगल व माइक्रोसॉफ्ट जैसी कई बड़ी कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आई थीं। ऐसे में कई अहम कोर्सों में छात्र इन प्लेसमेंट पैकेज को ध्यान में रखते हुए ही आवेदन कर रहे हैं। आवेदकों की संख्या कई गुना अधिक हो रही है, जिसे देखते हुए कॉलेज प्रशासन को कट-ऑफ में बढ़ोतरी करनी पड़ रही है।
प्रवेश की जद्दोजहद विश्वविद्यालयों व कॉलेजों के लिए महज एक-दो महीने की कवायद होती है, लेकिन छात्र इन्हें अपने पूरे भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं। उनके लिए यह नई उम्मीद बांधने का मौका होता है, पर व्यवस्था अक्सर उन्हें हताश करती है। पिछले कुछ सालों में हमने शिक्षा में सुधार की लंबी-लंबी बहसें चलाई हैं, लेकिन ऐसे इंतजाम ज्यादा नहीं किए कि अपने करियर के नाजुक मोड़ पर खड़े नौनिहालों को एक संतोषजनक विकल्प मिल सके। दाखिले की मारामारी इसी का नतीजा है।
उच्च शिक्षा में भारत
– संख्या की दृष्टि से भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर है।
– नौ छात्रों में से एक ही छात्र कॉलेज तक पहुंच पाता है देश में।
– 11 फीसदी छात्र ही भारत में उच्च शिक्षा में रजिस्ट्रेशन कराते हैं।
अगर वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो यह अनुपात सबसे कम है। अमेरिका में सबसे ज्यादा 83 फीसदी छात्र उच्च शिक्षा में रजिस्ट्रेशन कराते हैं।
– 10 में से एक मानविकी का छात्र और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं, नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार।
– 90 फीसदी भारत के कॉलेजों और 70 फीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमजोर है।