नेशनल इमरजेंसी या राष्ट्रस्तरीय आपातकाल की घोषणा लगभग चालीस साल पहले 26 जून 1975 को की गई थी। मुझे, मेरी पीढ़ी को, वह तारीख अच्छी तरह याद है। रेडियो पर ऐलान हुआ। मैं तब एक मामूली सरकारी ओहदे पर था मद्रास में। इमरजेंसी! जैसे कि कोई जलजला आया हो। फिर सन्नाटा छा गया सब जगह। एक दोस्त ने मुझे फोन कर बताया कि जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया है… मोरारजी भाई और चंद्रशेखरजी को भी…फलां नजरबंद है, फलां को घर-कैद दी गई है और फलां लापता! शायद अंडरग्राउंड…अंडरग्राउंड यानी? यानी कि गायब, खुद को भूतल कर देना ताकि पुलिस ढूंढ़ न सके। पुलिस!… और हां, चुप रहना, कुछ बोलना नहीं। खासकर फोन पर। सब टेप हैं!… टेप यानी? रहने दो बाद में बतलाऊंगा… बस, लाख बार कहा था तुझको जयप्रकाश नारायण के नाम की रट मत लगाते रहना… जब भी देखो : जेपी, जेपी… मेरी बात नहीं मानी ना… अच्छा छोड़ो इसे… अब, जैसे कि कुछ नहीं हुआ हो, चुपके से घर लौट जाना… इधर-उधर भटकना मत… खतरनाक दिन है यह!
सर कुछ चकराया। जेपी का क्या हुआ?
इमरजेंसी के ऐलान से पहले देशभर में उस वक्त इंकलाब का माहौल बना हुआ था। लोकनायक के नेतृत्व में एक ऐसा जनांदोलन उठ खड़ा हुआ था, जैसा कि स्वतंत्रता संग्राम के बाद हिंदुस्तान में कभी नहीं दिखा था। मकसद क्या था उस आंदोलन का? यह कि भारत जनतंत्र है, लोकतंत्र है, जिसको हिंदुस्तानी या उर्दू में जम्हूरियत कहते हैं। और यह जनतंत्र बड़ी कुर्बानियों के बाद हासिल हुआ है। उससे मिले हकों को बड़े ध्यान से, ईमान से, बचाए रखना चाहिए। उस जनतंत्र में जनता का शोषण नहीं चल सकता, भ्रष्टाचार नहीं चल सकता, किसी का एकाधिपत्य नहीं चल सकता। किसी पार्टी या सियासी नेता की तानाशाही नहीं चल सकती। मानवाधिकार सर्वोच्च हैं। जनता सरकार के सामने नहीं, जनता के सामने सरकार जवाबदेह है।
इंदिरा गांधी का तब शासन था। कांग्रेस हुकूमत में थी। लेकिन वह वो पुरानी कांग्रेस नहीं रही थी। वह गांधी-नेहरू वाली कांग्रेस नहीं थी, पटेल-पंत वाली कांग्रेस नहीं थी। उसकी खादी में से गांव की मिट्टी, संघर्ष की धूल उतर चुकी थी और उसकी जगह सत्ता का कलफ चढ़ चुका था। घमंड का और अहंभाव का। ‘खादी को मैल पसंद नहीं", गांधीजी कह चुके थे। लेकिन तब की कांग्रेस में कलफ पर मैल चिपक चुकी थी।
देश सजग हो गया था, लोकनायक के आह्वान से, उनकी नेकी और बहादुरी से। युवा भारत खासकर जाग गया था : ‘संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।"
आज के युवा पाठकों को यह तवारीख मालूमना होगी, इसीलिए कुछ विस्तार से, इत्मीनान से दुहरा रहा हूं।
सरकार चौंकी, घबराई। तानाशाहों को जवानी कब भायी है? दिल्ली में महासम्मेलन हुआ। लोकनायक बोल उठे रामधारी सिंह दिनकर के अल्फाज में : ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…" बस। अपने सलाहकारों के कहने पर इंदिरा गांधी ने बेचारे सोए हुए तब के राष्ट्रपति को देर-अंधेर जगाया और ‘आपात" दस्तावेज पर उनके हस्ताक्षर लिए।
अनुशासन चाहिए, बतलाया गया।
जेपी कैद हुए, हजारों के साथ। जो भी इंदिरा गांधी के वफादारों में नहीं थे, सब या तो गिरफ्तार किए गए या फिर सख्त निगरानी में बांध दिए गए। इनमें कई पुराने कांग्रेसी थे, जैसे कि मोरारजी देसाई, चंद्रशेखरजी, और कई गैरकांग्रेसी जैसे कि अटलजी, आडवाणीजी, जॉर्ज फर्नांडीस। तब के युवा नेताओं में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार भी कैद हुए।
देश पर जैसे कि अंधकार छा गया। अखबार खामोश कर दिए गए। ‘बातें कम, काम ज्यादा" के पोस्टर दीवारों पर लगे।
हां, रेलगाड़ियां सही वक्त पर चलने लगीं, सरकारी दफ्तरों में अफसरान सही वक्त पर आने लगे। ईमान से नहीं, डर से कि कौन जाने कल नौकरी चली जाए!
जनतंत्र गया, भयतंत्र आया। चुप्पी में ही भलाई है भाई, चुप्पी में। हां में हां मिलाते रहो भाई, हां में हां। नेत्री हमारी नेत्री नहीं देवी हैं, बोलो देवी। इंदिरा बोलो इंडिया हैं, इंडिया हैं इंदिरा।
हर सितम की अपनी उम्र होती है। जनता से बर्दाश्त ना हुआ। चुनाव लाए गए। इमरजेंसी समाप्त हुई। सुकून! तो चलिए, उस सुकून को मनाते हैं।
लेकिन… कुछ-कुछ नहीं, बहुत कुछ सोच के साथ। आपात सिर्फ एक सरकारी नियम नहीं। वह एक कागज पर लिखा कानून नहीं। आपात एक मनोस्थिति है। वह एक सिफत है।
डर के कई चेहरे होते हैं। कई रंग।
जनतंत्र के रखवालों के नसीब में नींद कहां!
जनतंत्र के दुश्मनों की नींद में चैन कहां!
तानाशाह बदल जाते हैं, तानाशाही के हिमायती रह जाते हैं वैसे के वैसे ही, वहीं के वहीं। वे हर दल में हैं, हर संगठन में।
उनके इरादे छिप सकते हैं, बदल सकते नहीं।
सब जयप्रकाश थोड़े ही हैं!
फैज अहमद फैज ने इंसानों के बारे में नहीं, इंसानों के वफादार दोस्त के बारे में लिखा है : ‘ना आराम शब को, ना राहत सवेरे। गिलाजत में घर, नालियों में बसेरे। जो बिगड़ें तो एक-दूसरे से लड़ा दो। जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो।"
आज हिंदुस्तान के लोगों को कोई ऐसा करने की जुर्रत नहीं कर सकता। क्योंकि हम इमरजेंसी देख चुके हैं, उसके सबक सीख चुके हैं। फिर भी हमें भूलना नहीं चाहिए कि आजादी मुफ्त में नहीं मिलती, वह एक कीमत मांगती है, जिसका नाम है जागरूकता।
(लेखक पूर्व राज्यपाल, उच्चायुक्त हैं और संप्रति अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास व राजनीति शास्त्र के विशिष्ट प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)