इन सबके बावजूद शिक्षा के स्तर में गिरावट महसूस की जा रही है। हर कोई चिंतित रहता है। किसे दोष दें, यह कभी तय नहीं हो पाता है। स्कूली छात्र के जीवन में शिक्षक, अभिभावक, पाठ्यचर्चा, स्कूली परिवेश और स्वयं की लगन का समेकित योगदान होता है। जिस स्कूल की प्रबंध समिति यह जानती है, वहां का परिदृश्य सकारात्मक और वैभवशाली होता है। इस योगदान की कमीबेशी के कारण ही सरकारी और निजी स्कूल का भेद उपजता है।
अभी सरकारी स्कूलों का नियंत्रण एक हाथ में नहीं है। सरकारी शिक्षक या तो जिला-जनपद पंचायत या नगर निकाय के कर्मचारी हैं या आदिम जाति विकास विभाग और स्कूल शिक्षा विभाग के। ये संस्थाएं शिक्षा की गुणवत्ता और बुनियादी विचार से प्राय: अपरिचित होती हैं और अपने शिक्षकों को वेतनभोगी कर्मचारी से ज्यादा कुछ नहीं समझतीं। नतीजतन शिक्षक की अकादमिक पहचान नहीं बन पाती।
शिक्षक संवेदनाओं के साथ जीता है। बच्चों के साथ काम करते-करते वह अत्यधिक कल्पनाशील हो उठता है और कभी-कभी तो अपने बचपन में लौट आता है। वह मन लगाकर काम करने के लिए कुछ अनुकूलताएं चाहता है और शासन से कुछ छोटे-मोटे आश्वासन की भी इच्छा रखता है, तो यह अनुचित नहीं है।
हाल ही में खबर आई कि स्कूल शिक्षा का सारा बंदोबस्त एक छत के नीचे होने का प्रस्ताव मंजूर होने जा रहा है। प्रस्ताव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ओर से है। इस प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी मिल जाती है तो बरसों से लंबित मांग पूरी हो जाएगी। जब समूची व्यवस्था स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा संचालित होगी, तब एक जैसे मापदंड होंगे, शिक्षा के मूल्य निर्धारण में समानता होगी, समन्वय होगा और बरसों से बिखरे पड़े सूत्र सिमटेंगे। यह प्रस्ताव मध्य प्रदेश शासन के अंतर्गत काम करने वाले तमाम शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए शुभ समाचार है। इससे कई तरह की विभाजन रेखाएं टूटेंगी। शिक्षकों के ऊपर लगे भिन्न् लेबल हट सकते हैं। पदोन्न्ति व भर्ती के लिए एक-दूसरे का मुंह ताकने का सिलसिला टूटेगा, तो एक मजबूत प्रशासन के विश्वास की नींव खड़ी होगी।
लंबे समय तक नकारात्मकता के आरोपों को सहते रहने के बाद मप्र शासन का स्कूल शिक्षा विभाग नए दौर की तैयारी से लैस दिख रहा है। शिक्षा की अस्मिता को बाजारवाद के चंगुल से छुड़ाने की पहल शुरू हुई है। यह काम एक-दो दिन में पूरा नहीं हो सकता, लेकिन शासन की विचार-शक्ति ने दम मारा तो मुमकिन है कि कम से कम अगले सत्र के पहले अभिभावकों की जेब पर असर दिखाई देने लगे।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपने की हवा बनी थी। इस हवा के विरुद्ध सैकड़ों शिक्षकसंगठन उठ खड़े हुए थे, लेकिन मुख्यमंत्री ने सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देने के विचार को ही खारिज कर दिया। उन्होंने सरकारी स्कूलों के प्रति जो लगाव और आस्था जताई है, वह स्वागतयोग्य है। उन्होंने आग्रह किया है कि सरकारी स्कूलों को ही निजी स्कूलों की तरह आकर्षक, रुचिपूर्ण और सीखने की विविधताओं से संपन्न् बनाया जाए। अब गेंद शिक्षकों के पाले में आ गई है। शिक्षक संगठित हों, आंदोलन करें, यह ठीक भी हो सकता है, किंतु उनका प्रत्येक कदम स्कूल के हित में होना चाहिए। शिक्षा में नया दौर लाने का सबसे महत्वपूर्ण काम तो शिक्षक के ही जिम्मे है।
दो दशक पहले तक शिक्षकों के पास बच्चों की हाजिरी भरने और पढ़ाने के अलावा कोई काम नहीं था। शिक्षक विद्यार्थियों के लिए आदर्श हुआ करते थे, क्योंकि वे जीवन-मूल्य विकसित करते थे। वे मूल्य खिसक गए हैं। विद्यार्थियों की नजर में हमारा शिक्षक मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति, गणवेश, नि:शुल्क कॉपी-किताबें और साइकिलें बांटने वाला और फेल-पास घोषित करने वाला रह गया है। शिक्षक की यह छवि ठीक नहीं है। इसके लिए शासन को पहल करना पड़ेगी। शिक्षा में नया दौर तभी आएगा, जब शिक्षक पूर्णत: प्रशिक्षित, तनावमुक्त हो और उसके पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय व अनुकूल हालात मिलें।
स्कूली शिक्षा का मॉनीटरिंग तंत्र संवेदनशील, सुधारात्मक व अकादमिक स्वभाव का हो तो विभाग और शिक्षकों के बीच रिश्ता सौहार्द्रपूर्ण होगा। निरीक्षकों का डंडा घुमाते हुए स्कूल में आना और बच्चों के सामने शिक्षक को डांट-डपट करना दुर्भाग्यपूर्ण है। निरीक्षण की शैली बदलनी होगी।
सरकारी स्कूल के बच्चों के हित में एक बात अच्छी है कि वे सुविधाभोगी नहीं हैं, जीवन के उतार-चढ़ाव जानते हैंऔर कठिन विषमताओं से उनका सामना होता रहता है। सच्ची शिक्षा के लिए ये ही परिस्थितियां अनुकूल मानी जाती हैं।
एक-दूसरे पर दोषारोपण करने की प्रवृत्ति छोड़ें। शासन अपना काम अच्छी नीयत से कर रहा है। राजनीतिक दल सहयोग करें, समाज सहभागिता दिखाए, अभिभावक स्कूल में रुचि लें और शिक्षक अपने को मूल कर्तव्य से भटकने न दे। शिक्षा में नया दौर आने को बेचैन है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)