जीएसटी बनाने की प्रक्रिया एक दशक से चल रही है। वाजपेयी सरकार के दौरान गठित विजय केलकर के नेतृत्व वाली समिति ने पहली बार इसका प्रस्ताव किया था और इसने अपनी रिपोर्ट मार्च, 2004 में सौंपी थी। उसके बाद संप्रग शासनकाल में पी. चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी ने इसे आगे बढ़ाया। अंतत: चिदंबरम ने मार्च, 2011 में इस बारे में लोकसभा में विधेयक पेश किया। उसके बाद जैसी कि सामान्य संसदीय प्रक्रिया है और जिसे मोदी सरकार ने नष्ट कर दिया है, जीएसटी विधेयक को पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के नेतृत्व वाली वित्त मामलों की संसदीय समिति को सौंप दिया गया। इस समिति ने अपने विचार-विमर्श को समाप्त करने में असाधारण रूप से बहुत लंबा समय लेकर अगस्त, 2013 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। रणनीति बिलकुल साफ लगती थी – संप्रग के जीएसटी विधेयक में यथासंभव देरी करो।
सिर्फ स्थायी समिति ही नहीं थी जिसने जीएसटी विधेयक को पेश करने की संप्रग की योजना को पटरी से उतारा। तब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने यह तर्क देते हुए विधेयक के खिलाफ आक्रामक रुख अख्तियार किया हुआ था कि इससे राज्य के हितों को आघात पहुंचेगा। जिस तरह वैट लागू किए जाते समय शुरुआत में प्रावधान किया गया था, उसी तरह जीएसटी विधेयक में प्रावधान किया गया कि अगर आरंभ में राज्यों पर राजस्व को लेकर विपरीत प्रभाव पड़ता है तो उन्हें मुआवजा दिया जाएगा। पर तब मोदी झुकने को तैयार नहीं थे।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने अपना स्वर बदल लिया और जीएसटी विधेयक का समर्थन करने लगे। यह भी एक तथ्य है कि उनकी सरकार का जीएसटी विधेयक संप्रग द्वारा पेश किए गए जीएसटी विधेयक से भिन्न् है। नए विधेयक में कुछ ऐसी बातें हैं जो जीएसटी के मूल विचार को ही नष्ट करने वाली हैं। कई टैक्स विशेषज्ञों ने इन कमियों को बताया है और केंद्रीय वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी कहा है कि नवीनतम जीएसटी विधेयक की निश्चित रूप से समीक्षा की जानी चाहिए। कम से कम चार क्षेत्र ऐसे हैं, जिनकी समीक्षा के लिए स्थायी समिति से कहा गया है।
पहला, मोदी सरकार का जीएसटी विधेयक जीएसटी दायरे से शराब, बिजली और रियल एस्टेट पर करों को अलग करता है। शुरुआत में यह पेट्रोलियम को भी जीएसटी के दायरे से बाहर रखता है, लेकिन यहां कम से कम यह है कि विधेयक में केंद्र और सभी राज्यों के प्रतिनिधियों वाली जीएसटी परिषद की सहमति के बाद उसे शामिल करने की बात कही गई है। इस तरह की छूट का प्रावधान शराब, बिजली और रियल इस्टेट पर टैक्सों कोलेकर नहीं है, जबकि ये राजस्व के महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
दूसरा, यह नया विधेयक अंतरराज्यीय व्यापार या व्यवसाय पर एक प्रतिशत अतिरिक्त टैक्स का प्रावधान करता है। जीएसटी दर जो होगी, उससे यह अतिरिक्त है और यह गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे उद्योग वाले राज्यों की चिंताओं को पूरा करने के खयाल से है। यह टैक्स बिना संदेह उपभोक्ताओं को चोट पहुंचाने वाला होगा। इससे भी ज्यादा जीएसटी अंतिम लक्ष्य वाला कराधान है और यह अतिरिक्त टैक्स जीएसटी के इस आधारभूत सिद्धांत का खंडन करता है। इसलिए हर तरह से यह एक प्रतिशत अतिरिक्त कर पथ से भटकाव है।
तीसरा, अभी हम यह भी नहीं जानते कि राजस्व-शून्य जीएसटी दर क्या होगी। शुरुआती संकेत यह हैं कि राज्यों के वित्त मंत्री 25 प्रतिशत से अधिक (संभवत: लगभग 27 प्रतिशत) जीएसटी दर से प्रसन्न् होंगे। लेकिन यह वस्तुत: आर्थिक विपदा का साधन होगा, क्योंकि दुनिया में अन्यत्र अधिकतम जीएसटी 15-16 प्रतिशत है। संयोगवश भारत दुनिया में एकमात्र देश होगा जहां दोहरी जीएसटी व्यवस्था होगी – एक, केंद्रीय जीएसटी और दूसरी, राज्य जीएसटी। दूसरी जगहों पर सबसे अच्छी व्यवस्था एकल जीएसटी मॉडल पर आधारित है।
चौथा, विधेयक में जीएसटी परिषद का जो प्रावधान किया गया है, वह सभी निर्णयों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होगा। इस परिषद को काफी संभावित अधिकार होंगे और इसे जीएसटी टैक्स बेस और इनकी दरों, छूट, दायरों और अन्य कामकाजी मानकों पर सिफारिशों के अधिकार होंगे, लेकिन जैसा कि कुछ विशेषज्ञों ने रेखांकित किया है, जीएसटी परिषद के अधिकार को संविधान संशोधन विधेयक का हिस्सा नहीं बनाया गया है। कुछ और भी विसंगति है, जैसे कुछ प्रावधान परिषद के ‘निर्णयों" की बात करते हैं, जबकि अन्य इसकी ‘सिफारिशों" की बात करते हैं। विवाद अवश्यंभावी हैं और इसलिए संप्रग के जीएसटी विधेयक ने एक विश्वसनीय विवाद निपटारा तंत्र का प्रावधान किया था। वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा बनाए गए नए विधेयक में यह तंत्र दुर्भाग्यवश हटा दिया गया है।
जीएसटी सामान और सेवा (गुड्स एंड सर्विस) टैक्स के लिए है, लेकिन जैसा कि प्रमुख टैक्स विशेषज्ञ सत्य पोद्दार ने हाल में कहा है, इसे अच्छा और सहज (गुड एंड सिंपल) टैक्स होना चाहिए। वर्तमान विधेयक में किए गए प्रस्तावों के मुताबिक ऐसा नहीं है। निश्चित रूप से यह आगे बढ़ने वाला कदम है, लेकिन कई असुविधाजनक सवाल अनुत्तरित छोड़ दिए गए हैं। राज्यसभा की स्थायी समिति का नेतृत्व गंभीर और जानकार भाजपा नेता भूपेंद्र यादव को सौंपा गया है। उम्मीद है, वह अपने वरिष्ठ सहयोगी वित्त मंत्री के रबर स्टांप नहीं होंगे, बल्कि इस अवसर का लाभ उठाते हुए विधेयक के दोषों को दूर करने की पहल करेंगे।
-लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं