कोई एक साल पहले जब स्मृति ईरानी को केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री बनाया गया था, तो मैं उनकी नियुक्ति पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले लोगों में शामिल नहीं था। मैंने यूपीए सरकार के ऐसे विदेशी डिग्रीधारी एचआरडी मिनिस्टरों को देखा था, जिन्होंने अपने विभागीय दायित्वों में न के बराबर दिलचस्पी दिखाई थी। उनकी तुलना में स्मृति ईरानी कहीं ऊर्जावान और सक्रिय नजर आती थीं। उन्हें देखकर उम्मीद जगती थी कि वे इस पद के लिए वांछित अकादमिक शिक्षा की पात्रता के अभाव की पूर्ति अपने उत्साह और सक्रियता से कर पाएंगी।
लेकिन क्या आज भी उनसे ऐसी ही उम्मीदें रखी जा सकती हैं? दुर्भाग्यवश अपने कार्यकाल के पहले साल में स्मृति ईरानी विभिन्न् कारणों से विवादों में रही हैं। उनके मिजाज का रूखापन भी खबरों का विषय रहा है और उनके मंत्रालय के अधिकारीगण दूसरे मंत्रालयों में तबादला मांगते देखे गए हैं। लेकिन सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण रही है विभिन्न् प्रतिष्ठित अकादमिक विद्वानों की अनदेखी, जिनमें आईआईटी के निदेश्ाकगण भी शामिल हैं। उनके द्वारा की गई कुछ नियुक्तियों में बौद्धिक समुदाय के प्रति उनकी अरुचि भी झलकी है। ऐतिहासिक शोध के एक प्रतिष्ठित संस्थान पर तो जिस व्यक्ति की नियुक्ति की गई थी, उनका नाम पेशेवर इतिहासकारों के लिए भी अनजाना था। होता भी क्यों नहीं, उन्होंने अपने जीवनकाल में एक भी उम्दा शोधपत्र जो प्रकाशित नहीं कराया था!
विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति परंपरागत रूप से या तो वे व्यक्ति रहे हैं, जो कि संवैधानिक पदों पर आसीन होते हैं (जैसे राष्ट्रपति या राज्यपाल) या फिर वे, जो कि प्रतिष्ठित विद्वान होते हैं। मिसाल के तौर पर प्रतिष्ठित समाजवैज्ञानिक आंद्रे बेतें अपनी अकादमिक योग्यताओं के बूते ही शिलॉन्ग की नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी के चांसलर रहे हैं। हैदराबाद स्थित मौलाना आजाद उर्दू यूनिवर्सिटी की पिछली चांसलर डॉ. सईदा हमीद थीं। डॉ. हमीद प्रतिष्ठित विद्वान हैं और उन्होंने मौलाना आजाद की जीवनी भी लिखी है। लेकिन एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद उन्हें पद से हटाकर एक ऐसे व्यक्ति को चांसलर बना दिया गया, जिन्हें लग्जरी कारों के डीलर के रूप में बेहतर जाना जाता है। उनकी नियुक्ति पर एक वरिष्ठ विद्वान ने कहा था कि शायद प्रतिष्ठित संस्थानों की कुर्सी हासिल करने के लिए आज विद्वत्ता से अधिक राजनीतिक प्रभाव का होना जरूरी हो गया है।
यह सच है कि गत एक वर्ष में देश में विश्वविद्यालयीन शिक्षा की गुणवत्ता राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेपों के चलते प्रभावित हुई है। यह खासतौर पर उन विश्वविद्यालयों में देखा गया है, जो कि राज्य सरकारों के नियंत्रण में हैं। आज से चालीस साल पहले तक कलकत्ता यूनिवर्सिटी, बॉम्बे यूनिवर्सिटी और बड़ौदा की एमएस यूनिवर्सिटी में कुछ बेहतरीन अध्ययनशालाएं हुआ करती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। जब पश्चिम बंगाल में माकपा की सरकार थी तो तमाम महत्वपूर्ण अकादमिक नियुक्तियां करने का अधिकार पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के हाथों में होता था। मुंबई में शिवसेना और गुजरात में भाजपा ने भी ऐसा ही किया है। स्थानीय विद्वानों की संकीर्ण नीति के कारण भी विश्वविद्यालयों को नुकसान पहुंचा है, क्योंकि राज्य से बाहर के विद्वानों को कैम्पस में प्रवेश करने से रोका जाता है।
ऐसा नहीं है कि अकादमिकह्रास की स्थिति देश के सभी विश्वविद्यालयों में है। मिसाल के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के कुछ बहुत अच्छे विभाग हैं। हमारे कुछ बेहतरीन फिल्मकार जामिया मिलिया इस्लामिया के जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र रहे हैं। जेएनयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी में कुछ शीर्ष वैज्ञानिक और समाजविज्ञानी फैकल्टी के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। ये तमाम विश्वविद्यालय आज और भी बेहतर प्रदर्शन कर रहे होते, अगर उन्हें प्रशासनिक हस्तक्षेपों से नहीं जूझना पड़ता। पिछले कई वर्षों से यूजीसी केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता में अतिक्रमण करता आ रहा है। यूपीए के राज में नियुक्त किए गए एक यूजीसी चेयरमैन ने एक ‘प्वॉइंट्स-बेस्ड" प्रोन्न्ति योजना लागू की थी, जिसका पालन सभी विश्वविद्यालयों को करना होता है। इससे अकादमिकों का ध्यान विभिन्न् जर्नल्स में शोधपत्र प्रकाशित करने के बजाय विद्यार्थियों के लिए उनके पाठ्यक्रम से पृथक गतिविधियां आयोजित करने और सेमिनारों में शिरकत करने पर केंद्रित होने लगा।
उम्मीद की जा रही थी कि एचआरडी मिनिस्टर बनने के बाद स्मृति ईरानी हमारे श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को और स्वायत्तता देने का प्रयास करेंगी। पूरी दुनिया में जानी-मानी बात है कि किसी भी कैम्पस में विद्वत्ता और मेधा को तभी प्रोत्साहन मिलता है, जब उसकी बागडोर स्वयं किन्हीं प्रतिष्ठित विद्वानों के हाथों में हो। लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने पहले से ही बेहद केंद्रीयकृत प्रणाली से जूझ रही उच्च शिक्षा को और केंद्रीयकृत करने का प्रयास किया है। और अब तो यूजीसी चाहता है कि सभी विश्वविद्यालयों में एकीकृत पाठ्यक्रम लागू किया जाए और उसे भी अकादमिक विद्वानों द्वारा नहीं, बल्कि नौकरशाहों द्वारा तैयार किया जाएगा। जबकि होना तो यह चाहिए कि श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की श्रेष्ठ अध्ययनशालाएं अपना पाठ्यक्रम स्वयं तैयार करें।
आने वाले दिनों में हालात इससे भी चिंताजनक हो सकते हैं। एक योजना के तहत यूनिवर्सिटी फैकल्टीज के लिए एक केंद्रीयकृत कैडर बनाने की तैयारी की जा रही है, जिसके सदस्यों को किसी भी समय विभिन्न् यूनिवर्सिटीज में भेजा जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो शोध कार्यक्रमों की पहले ही बदहाल स्थिति को इससे और ठेस पहुंचेगी, क्योंकि फैकल्टी सदस्यों के एक ही वर्ग द्वारा लंबे समय तक किसी शोध कार्यक्रम में सहभागिता करना अत्यंत आवश्यक होता है। हमें एकरूपता के गुण को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिए। जहां नौकरशाहों के लिए एकरूपता एक महत्वपूर्ण गुण्ा होता है, वहीं अकादमिक उद्यम के लिए एकरूपता बहुत बड़ी बाधा साबित हो सकती है। शोध और अध्ययन के लिए नवोन्मेष व रचनात्मकता की आवश्यकता होती है। अधिकांश अकादमिक अनुशासन ऐसे हैं, जिनमें बड़ी तेजी से बदलाव होते हैं। नई खोजें, नई प्रणालियां, नई थ्योरीज, इन सभी के कारण शिक्षण और शोध में भी बदलाव होते रहते हैं। लेकिन अगर यूजीसी के नौकरशाह ही पाठ्यक्रम में बदलाव करते रहेंगे तो ऐसा कैसे हो सकेगा? दूसरी तरफ प्राध्यापकों के तबादले की योजना को अनुमति देने का विचार भी राजनीति से प्रेरित ही नजर आता है।
मैं गत चार दशकों से भारतीय विश्वविद्यालयीन प्रणाली का बारीकी से मुआयना करता आ रहा हूं। और मैंने भारत के कुछ बेहतरीन अकादमिक विद्वानों को विभिन्न् अनचाहे दबावों के बीच काम करते और इसकेबावजूदउत्कृष्ट किताबें और शोधपत्र लिखते देखा है। भारत के विश्वविद्यालयीन अध्यापकों को जिस तरह के दबावों का सामना करना पड़ता है, उसकी तो अमेरिका, यूरोप और यहां तक कि चीन और सिंगापुर तक के प्राध्यापकगण भी कल्पना नहीं कर सकते। अतीत की सरकारें भी उनके साथ अनुचित बर्ताव करती रही हैं और मौजूदा सरकार का रुझान भी उनसे भिन्न् नहीं जान पड़ता है।
(लेखक मशहूर इतिहासकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं