पहचान छिपाने की मजबूरी देता समाज

छुआछूत को कानूनी तौर पर खत्म किए जाने के 65 साल बाद भी देश का चौथा नागरिक किसी-न-किसी रूप में इसके अनुभवों से गुजर चुका है। एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है। यह सर्वे राष्ट्रीय व्यावहारिक आर्थिक अनुसंधान परिषद और मैरीलैंड यूनिवर्सिटी, अमेरिका ने किया है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि छुआछूत विरोधी तमाम कड़े कानून बनने के बाद हम उससे मुक्त नहीं हो पाए हैं। ऐसे कानूनों की अपनी एक सीमा होती है, वे सदियों पुरानी उस मानसिकता पर पहरा नहीं लगा सकते, जिसने एक वर्ग को शक्तिसंपन्न बनाया और दूसरे को शक्तिहीन। फिर इस सोच को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का माहौल रचा। ‘आप किसी के साथ काम करते हैं और सब ठीक चलता है, फिर एक दिन आपको घर पर बुलाया जाता है और आप हर समय यह सोचकर घबराते रहते हैं कि कहीं अगर आपने किचन में किसी चीज को छू लिया, तो अगला कहीं नाराज न हो जाए’ ये शब्द बेंगलुरु में रहने वाली सेंथारिल के हैं, जो पेशे से पत्रकार हैं, पर इस पहचान के साथ उनकी एक पहचान और भी है कि ‘वह दलित हैं।’

सेंथारिल कहती हैं कि वे कई दलित लड़कियों को जानती हैं, जिनकी जिंदगी हर समय पहचान खुल जाने के डर के बीच गुजरती है। स्वतंत्र भारत में सांस ले रही यह वह युवा पीढ़ी है, जिसे खुद की पहचान को नकारना पड़ रहा है, क्योंकि वह उस जिल्लत से बचना चाहती है, जो उनकी प्रतिभा पर हावी हो जाती है। यूं तो ग्रामीण अंचलों में जब कभी दलितों के ऊपर अत्याचार की घटना सामने आती है, तो कुछ दलित नेता मुखर होते नजर आते हैं, पर यह मुखरता सिर्फ वोट बैंक की जुगत करती दिखाई देती है। आज बड़ी तेजी से एक ऐसा वर्ग अपनी जगह बना रहा है, जिसके लोग पात्रता होने के बावजूद आरक्षण नहीं चाहते, वे उस वेदना को जीना नहीं चाहते, जो पहचान सामने आते ही झोली में आ जाती है।

 

अगर आप यह सोच रहे हैं कि यह सोच निम्न वर्ग से लेकर मध्यमवर्गीय श्रेणी तक सीमित है, तो आप गलत हैं। आनंद तेलतुंबडे (खैरलांजी : अ स्ट्रेंज ऐंड बिटर क्रॉप के लेखक) को जातिगत भेदभाव सबसे पहले मुंबई के एक कॉरपोरेट ऑफिस में झेलना पड़ा था। बकौल आनंद ‘अंबेडकर के नेतृत्व ने दलितों में आत्मविश्वास जगाया, मगर अंबेडकर के बाद बिखरते नोटों के लिए बिकते और आरक्षण को रामबाण की तरह पेश करते हमारे नेता आखिर नौजवानों में गर्व और आत्मविश्वास की भावना कैसे जगा सकते हैं?’ इस प्रश्न का संबंध उन हजारों युवाओं से है, जो अपना आत्मविश्वास खो रहे हैं। एक अरसे पहले यूनिसेफ के सहयोग से दलित आर्थिक आंदोलन ने मिलकर एक अध्ययन किया था, जिसमें पाया गया कि स्कूलों में भेदभाव के चलते बड़ी संख्या में दलित बच्चे अपने आगे की पढ़ाई बरकरार नहीं रख पाते। 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

 

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