उन्नीसवीं सदी के लगभग मध्य में स्थापित कलकत्ता विश्वविद्यालय और उसके उत्तरार्ध के इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने देश को नोबेल विजेता और प्रधानमंत्री दिया है। मगर अब इनकी गिनती विश्व रैंकिंग में पहले 400 विश्वविद्यालयों में भी नहीं होती। यहां तक कि ब्रिक्स देशों के शीर्ष 20 विश्वविद्यालयों में हमारी एक भी यूनिवर्सिटी नहीं है। दरअसल, हमारे विश्वविद्यालय ‘उच्च शिक्षा के नगरपालिका स्कूल’ में तब्दील हो गए हैं। दूसरी तरफ, अधिकतर निजी संस्थाएं प्रवेश व डिग्री के लिए काफी कैपीटेशन फीस वसूलती हैं। विचार, रचनात्मकता, शोध और इनोवेशन पर कोई जोर नहीं है। ऐसी प्रणाली बौद्धिक कायरता को ही बढ़ावा देती है। भारत की विश्वविद्यालय-प्रणाली विफल हो चुकी है।
इसके नतीजे पीढ़ी-दर-पीढ़ी दिखते आ रहे हैं। जैसे, देश में सिर्फ 19 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातक और पांच प्रतिशत गैर-इंजीनियरिंग स्नातक रोजगार पाने लायक हैं। हमारे यहां 200 से अधिक विश्वविद्यालयों से संबद्ध 5,000 से ज्यादा कॉलेज हैं और नियामक संगठनों के साथ इनका संरक्षक-ग्राहक जैसा संबंध है। इस व्यवस्था में कुछ तो है, जो बुरी तरह सड़ रहा है। देश के विश्वविद्यालय मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) के अधीन हैं। वहीं, राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (आरयूएसए) विकेंद्रीकरण की मांग करता है, किंतु इसे लागू करने में बड़े पैमाने पर ढिलाई दिखती है। यहां तक कि जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) कुछ सौ विश्वविद्यालयों व हजारों कॉलेजों को संचालित करता है, उसमें भी पारदर्शिता व रचनात्मकता दम तोड़ती दिखती है। इसके मुकाबले, चीन उच्च शिक्षा के मामले में शायद अधिक लोकतांत्रिक है।
साफ है, हमें समूचे विश्वविद्यालय-तंत्र में आमूल-चूल व मौलिक बदलाव लाने की जरूरत है। हमारे पास विश्वविद्यालय और संबद्ध कॉलेज कितने हों, इसकी एक ऊपरी सीमा होनी चाहिए। साथ ही, समय-समय पर ऑडिटिंग के जरिये जवाबदेही भी सुनिश्चित की जाए। यह जरूरी है कि विश्वविद्यालय प्रशासन को पूरी स्वायत्तता मिले और उसे मिलने वाली वित्तीय मदद में कमी न आए। मंत्रालय और नियामक संस्थाओं को निदेशकों और कुलपतियों के चयन से अपने को अलग करना चाहिए। इसकी जगह वे नीतियां बनाने पर ध्यान दें।
जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए हमारे बेहतर प्रदर्शन-मापदंड हों। मौजूदा मापदंड में संख्या पर जोर है, जैसे कितने शोध-पत्र हैं, पेटेंट की संख्या क्या है और क्षेत्रवार रैकिंग में कहां हैं? इसकी बजाय, विश्वविद्यालयों को अकादमिक उत्कृष्टता, शैक्षणिक क्षमता व सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदर्शन से आंका जाना चाहिए। किसी विश्वविद्यालय की सभी ज्ञान-सामग्रियों को, जैसे सिलेबस, पेपर, किताबें, पीएचडी रिसर्च व नौकरी पा रहे छात्रों, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रासंगिकता और वास्तविक मूल्य के आधार पर आंकने की जरूरत है। विश्वविद्यालयों को पारदर्शी और विश्वसनीय स्व-मूल्यांकन प्रक्रिया अपनानी होगी, नेशनल लॉ स्कूल व आईआईएम की तरह।
आजादी के बाद देश की विश्वविद्यालय-प्रणाली दो भागों में बंट गई। अध्ययन-अध्यापन के सभी काम विश्वविद्यालयों के हिस्से आ गए और शोध का काम संस्थाओं को सौंप दिया गया। इससे स्तानक से नीचे तक की पढ़ाई का स्तर खराब बना हुआ है, वहीं व्यावसायिक शिक्षा उपेक्षित है। टेक्निकल कोर्स अब भी प्राथमिकता में काफी नीचे हैं। यह जो बंटवारा है, उसकी बड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक कीमत हमें चुकानी पड़ रही है। इंजीनियरिंग के छात्र बेहद कम समग्र शिक्षा पाते हैं, मेडिकल कॉलेजों को तोशुरू से ही अलग-थलग रखा जाता है। कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में अलग विश्वविद्यालय बनाने का तरीका अब महत्वहीन हो चुका है। अकादमिक कार्यक्रमों या व्यावसायिक शिक्षण नीतियों को बनाने में विश्वविद्यालयों की भूमिका बहुत कम हो चुकी है।
ग्रेडिंग का हमारा तरीका भी अबूझ है। दो से छह डिविजन के अंतर को लेकर काफी विवाद हैं। जहां मदुरै कामराज विश्वविद्यालय मास्टर स्तर पर सिर्फ दो ग्रेडिंग देता है- फस्र्ट क्लास व सेकेंड क्लास, वहीं गुजरात और ओस्मानिया विश्वविद्यालय तीन ग्रेडिंग चलाते हैं। गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय तीन अलग-अलग फस्र्ट क्लास अवॉर्ड के साथ पांच ग्रेडिंग का इस्तेमाल करता है। परीक्षा की बेहद पुरानी प्रणाली छात्रों की योग्यता के प्रमाण-पत्र देती है, किंतु नौकरी पाने के लिए छात्रों के अंदर क्या गुण होने चाहिए, इस मामले में वह बेहद कम भरोसा जगा पाती है।
देश का विश्वविद्यालय तंत्र अपने बौद्धिक कुपोषण को बनाए रखता है। यह अंडर ग्रेजुएट लेवल को पढ़ाने से सीनियर फैकल्टी को रोकता है और उनको खास शैक्षणिक अनुभव पाने से वंचित करता है। इसलिए सबसे अच्छी फैकल्टी के साथ अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम को अधिक अवसरों से समृद्ध करने की जरूरत है। किसी खास विषय में दक्षता के साथ समग्र पाठ्यक्रम को बनाए रखा जाना चाहिए और व्यावसायिक शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों से इसे मजबूती से जोड़ा जाना चाहिए। उच्च शिक्षा में शिक्षकों की गुणवत्ता बढ़ाई जानी चाहिए। नव-नियुक्त शिक्षकों की खातिर एकेडमिक स्टाफ कॉलेजों को ओरिएंटेशन प्रोग्राम बनाने चाहिए। व्यवस्था में योग्यता का राज हो और इसका अकादमिक उत्पादकता, वेतन व कार्यकाल से सीधा जुड़ाव रहे।
यही नहीं, शोध अनुदानों के लिए नीतिगत ढांचा और रिसर्च फंडिंग की मात्रा, दोनों बदलने चाहिए। फैकल्टी सदस्यों के बीच शोध व प्रकाशन के लिए बेहतर प्रोत्साहन राशि प्रदान करने की जरूरत है। हाल ही में यूजीसी ने प्वॉइंट सिस्टम के आधार पर रिसर्च मूल्यांकन का एक रूप तैयार किया है। यह मेट्रिक एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडिकेटर में शामिल है। इसमें लेक्चरर के आउटपुट का लेखा-जोखा होता है। शोध को उन जर्नलों की रैंकिंग के आधार पर अंक दिए जाते हैं, जिनमें ये छपे होते हैं। जुलाई 2013 में वैज्ञानिकों और प्रकाशकों के एक समूह ने सैन फ्रांसिस्को डिक्लेरेशन ऑन रिसर्च असेस्मेंट को जारी किया था, जिसमें जर्नलों पर आधारित अंक को हटाने के पक्ष में तर्क थे।
सिफारिश की गई थी कि रिसर्च को इसकी अपनी गुणवत्ता के आधार पर अंक दिए जाने चाहिए। यूजीसी को भी विदेशी प्रकाशनों में भारतीय रिसर्च के छपने को वरीयता देने की परंपरा बंद करनी चाहिए। विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय रातोंरात खड़े नहीं होते। इसके लिए अच्छी साख वाली फैकल्टी चाहिए, जिसमें अच्छे प्रशासक व सहयोगी कर्मचारी भी हो। साथ ही, शोध व शिक्षा के बीच के नाजुक संतुलन पर जोर देना होता है। रूस की तरफ देखें। दुनिया के शीर्ष 100 में उसके सात विश्वविद्यालय हैं। वह अंतरराष्ट्रीय मॉडल व तौर-तरीकों के तहत अपने श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सहायता कर रहा है। भारत अपने शीर्ष 50 विश्वविद्यालयों को विश्व स्तर पर बढ़िया बनाने की सोच सकता है। इसके लिए उनको फंडिंग और संसाधन का स्पष्ट जनादेश देना होगा। लेकिन यह उत्कृष्टता हर दिन के मुआयने सेपक्कीनहीं होती। इसके लिए तो गुणवान शिक्षकों और प्रोफेसरों पर लगातार मेहनत करने की जरूरत है, जिनसे छात्र लाभ उठा सकें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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