कुछ साल पहले मैंने कृषि खरीद और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट पढ़ी थी। यह संस्था कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है। खरीफ के मौसम से संबंधित इस रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया था कि कपास के किसानों को बीस साल से अधिक समय तक जान-बूझकर 20 फीसदी कम कीमत दी गई ताकि टेक्सटाइल उद्योग को आर्थिक रूप से सक्षम बनाया जा सके। दूसरे शब्दों में, जो बात हम लोगों से कभी नहीं कही गई, वह यह है कि यह वस्तुत: कपास किसान थे जो टेक्सटाइल उद्योग को इतने वर्षों तक सबसिडी देते रहे हैं।
कुछ महीने पहले कपास की कीमत साढ़े चार-पांच हजार रुपए प्रति क्विंटल से गिरकर 3,200 रुपये प्रति क्विंटल हो गई। चूंकि इतने साल तक कपास के किसानों ने टेक्सटाइल उद्योग को सबसिडी दी थी, इसलिए मुझे उम्मीद थी कि टेक्सटाइल उद्योग कपास उगाने वालों की मदद के लिए आगे आएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। किसानों को अपना घाटा खुद भुगतना पड़ा।
ये दो उदाहरण बताते हैं कि ग्रामीण आबादी और मुख्यत: किसान किस तरह और कैसे पिछले वर्षों में आर्थिक रूप से कमजोर होते गए हैं। यह सिर्फ कपास उत्पादकों का मसला नहीं है, हर तरह के किसानों को जानबूझकर उनकी फसल की कम कीमत दी जाती रही है ताकि उद्योगों को कच्चा माल कम कीमत पर मिलता रहे या उन्हें इसलिए दंडित किया गया है ताकि उपभोक्ताओं तक कम कीमत में सामान पहुंचाया जा सके। मैं कभी नहीं समझ पाया कि सिर्फ किसान ही उपभोक्ताओं तक सामान कम कीमत में पहुंचाने के लिए क्यों भुगतें? अगर आप मुद्रास्फीति के नजरिए से देखें तो किसान 2015 में गेहूं और चावल केलिए जो कीमत पा रहा है, वह उतनी ही है, जितनी 1995 में थी।
2014 की एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि एक किसान परिवार की अपनी कृषि गतिविधियों से औसत मासिक आय महज 3,078 रुपए है। अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए एक किसान परिवार को मनरेगा समेत कुछ अन्य गैर-कृषि कार्य करने पड़ते हैं। तब उसे 6,000 रुपए प्रति परिवार प्रति महीने हासिल होते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि 58 फीसद किसान भूखे पेट सोते हैं और मौका मिले तो 76 फीसद किसानी छोड़ना चाहते हैं। अगर किसानों को अपने उत्पाद की सिर्फ पूरी कीमत दे दी जाती तो कृषि संकट इतना गहरा नहीं होता।
मई, 2014 में राजग सरकार के आने के बाद इस साल गेहूं और धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ 50 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाया गया है। पिछले साल गेहूं के किसानों को 1,400 रु. प्रति क्विंटल का भाव मिला, इस साल उन्हें 1,450 रु. दिया जा रहा है, जो 3.2 फीसद अधिक है। दूसरी तरफ, सरकारी कर्मचारियों को इसी अवधि में डीए की दो किस्तें दी गई हैं, जो उनके वेतन का 13 फीसदी है। किसानों के लिए कम कीमत सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए है कि खाद्य महंगाई को काबू में रखा जा सके। लेकिन यही सिद्धांत तब नहीं अपनाया जाता जब मसला सरकारी कर्मचारियों का हो। वे तो सामान्य ढंग से डीए पाते रहते हैं। फिर वही बात, ये किसान हैं जो उपभोक्ताओं को सबसिडी दे रहे हैं।
मुख्य रूप से यही कारण है कि कृषि घाटे का सौदा होती जा रही है। योजनाकार और नीति-नियंता इसीलिए किसानों को शिक्षा से विमुख रखना चाहते हैं। किसानों के लिए बेहतर आर्थिक भविष्य के नाम पर जबरन भूमि अधिग्रहण को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। मैंने वित्त मंत्री को यह कहते हुए कई मर्तबा सुना है कि वे उद्योगों का सिर्फ इसलिए समर्थन कर रहे हैं, क्योंकि उद्योगों से मिलने वाले राजस्व का वह ग्रामीण इलाकों में निवेश करना चाहते हैं। 2004-05 से पिछले दस साल में उद्योगों को 42 लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट दी गई है ताकि औद्योगिक विकास और औद्योगिक उत्पादन बढ़ सके तथा रोजगार में वृद्धि हो। लेकिन इस तरह कुछ हुआ तो है नहीं।
यह आड़ी-तिरछी आर्थिक सोच इस तरह की नीतियां बना रही हैं जो किसानों को किसानी छोड़कर शहरों की तरफ धकेल रही है। इसलिए, आर्थिक दृष्टि बदलनी होगी। इसका लक्ष्य ग्रामीण इलाकों को आर्थिक रूप से संपन्न् बनाना होना चाहिए। गांवों में आय वाले रोजगार उपलब्ध कराने पर जोर देना होगा। इसकी शुरुआत किसानों और गांवों में रह रहे अन्य लोगों को सही तरीके के आर्थिक प्रोत्साहन से करनी होगी। किसान भी उद्यमशील हैं और गांवों में रहने वाली युवा पीढ़ी भी शुरुआत कर सकती है। अब तक देहात को संसाधनों के अभाव के साथ रखा गया है। 12वीं पंचवर्षीय योजना में कृषि में सिर्फ 1.5 लाख करोड़ का निवेश किया गया है। कृषि पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 60 करोड़ लोगों के आश्रित होने के मद्देनजर यह चना-चबेना जैसा है।
-लेखक कृषि व खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं