बाधाओं के बावजूद महिलाओं का संघर्ष- ऋतु सारस्वत

देश की हाई कोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ का यह वक्तव्य हालांकि वर्ष 1978 में घटे एक वाकये का है, परंतु क्या तब से लेकर इस तस्वीर में कोई बदलाव आया है? फोर्ब्स पत्रिका की शीर्ष प्रभावशाली महिलाओं की सूची में चंद भारतीय महिलाओं के चमकते चेहरे बेशक हां में इसका जवाब देने का संकेत करते हैं, लेकिन क्या उंगलियों पर गिनी जाने वाली इन महिलाओं की सफलता आधी आबादी की वास्तविक तस्वीर को उभार पाएगी? क्या हम उन महिलाओं को देखकर ही अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे, जो अपने दफ्तर तक पहुंचने की जुगत में, स्वयं को सिद्ध करने की कोशिश में थककर चूर हो चुकी हैं।

‘औरतें अब आदमियों के बराबर काम कर रही हैं’, यह जुमला तब निरर्थक लगने लगता है, जब समानता के अधिकार के लिए बार-बार महिलाओं को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। गौरतलब है कि कुछ ही समय पूर्व महिला मेकअप आर्टिस्टों को बॉलीवुड में जगह नहीं दिए जाने पर उच्चतम न्यायालय ने लताड़ लगाई थी, जिसके चलते महिला मेकअप आर्टिस्टों के लिए दरवाजे तो खोल दिए गए, लेकिन उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से रोके रखने के लिए सदस्यता शुल्क और शतें बढ़ा दी गईं। हालांकि इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने पुन: सिने कॉस्ट्यूम मेकअप आर्टिस्ट और हेयर ड्रेसर एसोसिएशन की निंदा करते हुए इसे सुधारने के आदेश दिए।

सरसरी तौर पर देखें, तो लगता है कि कुछ हद तक महिलाएं आत्मनिर्भर हुई हैं। मगर यह अधूरा सच है, क्योंकि सार्वजनिक सेवा के किसी भी क्षेत्र में महिलाओं को उच्च पद पर पहुंचने के लिए बेहद संघर्ष करना पड़ता है। पुरुष ही नहीं, ऐसी महिलाओं की संख्या भी कम नहीं, जो मानती हैं कि स्त्रियों की जगह घर की चारदीवारी के भीतर है। विश्व के कई देशों में यही हाल है। चीन जो लगातार अपनी उन्नति का दावा पेश करता है, वहां भी महिलाओं को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।

चीन में एवरब्राइट बैंक में कार्यरत एंगेला ली को पदोन्नति देने से इन्कार करते हुए उनके बॉस ने कहा कि ‘आप गंभीरता से कार्य करती हैं, यह अच्छी बात है। लेकिन आपको जीवन साथी ढूंढने पर विचार करना चाहिए।’ बात चाहे भारत की हो, चीन की या अन्य विकासशील देशों की, जब बात महिलाओं को वेतन, पद और पदोन्नति देने की आती है, तो कंपनियां इसके लिए तैयार नहीं होतीं। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने देश की सभी सूचीबद्ध कंपनियों को अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक की नियुक्ति के आदेश दिए थे, लेकिन विडंबना देखिए कि यहां भी कंपनियों ने बीच का रास्ता निकाल लिया। जिन कंपनियों ने सेबी के दिशा-निर्देश को माना, उनमें से हर छह में से एक ने किसी रिश्तेदार महिला को ही बोर्ड में स्थान दिया है। हर वह स्त्री, जो अपनी योग्यता के बूते पर उच्च पदों पर पहुंचना चाहती है, उसकी सफलता को उसके ‘स्त्री’ होने से जोड़कर देखा जाता है। उसके सहकर्मी तरह-तरह की कहानियां गढ़ने लगते हैं, जो उसके आत्मबल को तोड़ता है। चाहे जो भी हो, लाख अड़चनों के बाद भी महिलाएं संघर्षरत हैअपने अस्तित्व की खोज में। बस जरूरत है तो कुछ प्रोत्साहन की, जो देश के संवेदनशील वर्ग से अपेक्षित है।

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