दिल-ओ-दिमाग से भी आगे, एक ऐसे कोने में सिकुड़कर बैठा हुआ एक खयाल, जो कि अकसर खामोश रहता है, आसपास के शोरगुल से कोई ताल्लुक ना रखते हुए, वो अपने खयालों में खोया-खोया रहता है। लेकिन कभी-कभी, वह यकायक उठ खड़ा होता है, अंगड़ाई लेता है और फिर ऐसे बोलता है कि उसकी आवाज को सुनना पड़ता है।
किस जुबान में बोलता है जमीर?
क्या जिस इंसान में उसका घर है, उसकी मादरे-जुबान में? या फिर राष्ट्रभाषा में? या अंग्रेजी में?
नोटा! नन ऑफ द अबव! इनमें से किसी में नहीं!
वो बोलता है जुबान-ए-जमीर में।
उस जुबान की कोई तहरीर या लिपि नहीं, उसमें कोई कवायद नहीं, कोई व्याकरण नहीं, न स्वर, न व्यंजन। लेकिन अगर उसके कहे को हम लिख लें तो उसकी वर्तनी में कोई गलती नहीं हो सकती।
जुबान-ए-जमीर के पीछे एक पूरी पुख्ता तवारीख है, उसके नेपथ्य में एक पूरा इतिहास है, उसका अपना एक बड़ा साहित्य है, उसकी इल्मियत है। कुछ ऐसा समझिए कि जुबान-ए-जमीर में एक किस्म की मौसिकी है, एक संगीत है, छंद है, लय है।
आलाप में कोई बोल होते हैं क्या? नहीं केवल सुर होते हैं! बस वैसे ही, जमीर में भी कोई अल्फाज नहीं होते, कोई हुरूफ नहीं। सिर्फ आवाज। बुलंद आवाज!
जमीर की तवारीख में, अंतरात्मा के इतिहास में कई उदाहरण मिलते हैं, जबकि जमीर ने अपनी खामोशी से बाहर आकर कुछ कहा, सुना, किया।
राजमहल में पैदा हुए और राजमहल ही में बड़े हुए गौतम सिद्धार्थ ने जब मनुष्य के दु:खों का ठीक सामने साक्षात किया, तो उनकी आत्मा ने उनको कहा : ‘बाहर आओ महल से, निकलो घर के आराम से।" कलिंग के जंग के मैदान में जब विजयी सम्राट अशोक ने हजारों मृतकों और घायलों को देखा तो अंतरात्मा उनकी बोल पड़ी : ‘क्या किया है तुमने? यह विजय है तेरी या शर्म?" जूडिया के प्रशासक पोंटियस के सामने जब ईसा मसीह को कुफ्र के इल्जाम में पेश किया गया, तब जमीर से रहा नहीं गया : ‘यह आदमी गुनहगार नहीं… इसके खून के लिए मैं जिम्मेदार नहीं…"
समय को फास्ट-फॉरवर्ड करते हैं।
1922 में असहयोग आंदोलन के दौरान जब 23 पुलिसकर्मियों को जिंदा जला दिया गया तो महात्मा गांधी की अंतरात्मा भड़क उठी : ‘यह क्या? क्या हम इंसानों का खून करके आजादी हासिल करेंगे? ना, ना!" भारी आंदोलन को मंझधार में गांधी ने रोका।
जमीर!
1946-47 में बंगाल के नोआखाली और बिहार में भयानक कौमी दंगे हुए। बंगाल के उस इलाके में मुसलमान हिंदुओं पर हमला कर रहे थे, बिहार में हिंदू मुसलमानों पर। पर यहां ‘हिंदू" और ‘मुसलमान" कहना गलत होगा। मारने वाला, बलात्कार करने वाला ना हिंदू था ना मुसलमान। अठहत्तर साल के गांधी दोनों जगहों में पहुंचे। बिहार में उन्होंने लोगों से पूछा : ‘किसने इस बुढ़िया का कत्ल किया है? बोलो, बोलो? अगर नहीं बताओगे तो मैं उन हड्डियों से पूछूंगा। अंतरात्मा नहीं है क्या तुम लोगों में?"
जमीर!
‘जब भी कहीं कोई गुनाह होता है तो मुझे लगता है कि गुनहगार मैं हूं", यह गांधी कह चुके हैं।
1984 में जब दिल्ली में सिखोंका कत्लेआम हुआ, किसी एक मंत्री ने नहीं कहा : ‘मैं दोषी हूं!"
2002 में जब गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ, तब वहां के किसी मंत्री ने नहीं कहा, ‘इसमें दोषी मैं भी हूं!"
स्वतंत्र भारत की सरकार में लालबहादुर शास्त्री रेल मंत्री थे। 1956 में जब तमिलनाडु के अरियालुर नगर में एक भारी रेल दुर्घटना हुई, तब उस नेक इंसान ने फौरन इस्तीफा दिया : ‘इसका जिम्मा मैं लेता हूं!"
जमीर!
अभी पिछले दिनों हमें बोलते हुए जमीर का एक बढ़िया उदाहरण मिला है। मैं अरुण शौरी का हमस्कूल और हमकॉलेज रहा हूं। वे मेरे से काफी सीनियर रहे हैं, इसलिए उनका हमजमात तो न बन पाया। उनकी सोच, उनकी साफगोई से हमेशा प्रभावित रहा हूं। लेकिन इधर कुछ समय से उनके विचारों से मेरे खयाल मेल न बना सके थे। वे बीजेपी के अग्रणी नेताओं में से हैं, मेरे राजनीतिक विचार बीजेपी से सौ गांव दूर! हिंदुत्व के बारे में उन्होंने एक अहम लेख लिखा है और उससे ही मेरी सोच बिलकुल विपरीत है। लेकिन उनके जमीर की बुलंदगी को लेकर मुझे कभी कोई शक नहीं रहा। उन्होंने अभी जो केंद्र सरकार के बारे में कहा, उसमें भी सत्य बोल रहा है, धैर्य बोल रहा है। क्या कहा है उन्होंने?
मैं उनके कहे को दोहरा सकता हूं, लेकिन क्यूं?
पाठक उनके कहे को अन्यत्र पढ़ सकते हैं, उन्हीं के शब्दों में। लेकिन उन्होंने मौजूदा सरकार की कड़ी आलोचना की है। सरकारों की आलोचना होती रहती है। यह गणतंत्र की शोभा है। लेकिन विरोधी जब विरोधी दल से होता है, तब उस विरोध में वो बात नहीं होती, जो कि ‘अपने" किसी से विसम्मति सुनने में होती है। अरुण शौरी बीजेपी में वफादारी से हैं। उन्होंने जो भी कहा, वह जमीर की आवाज में आया है, अपनी विरोधी भूमिका की आवाज में नहीं। जब टीका अपनों से ही होती है, तब वह चुभती है। जब औरों से होती है, तब वह चुभती नहीं, बस जरा-सा तंग भर करती है। और जब अपनों की वो टीका सच्ची होती है, तब तो क्या कहना। उन्होंने जो कहा है, वह महत्वपूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन उनके कहे हुए से भी ज्यादा अहम बात यह है कि बीजेपी के अंदर से विसम्मति की, जमीर की आवाज सुनी गई है।
अंग्रेजी में ‘डिसेंट" नाम का लफ्ज है।
‘डिसेंटर" जो होता है, वह ‘अपना" होता है। वह ‘अपोनेंट" नहीं होता, वह घर का ही होता है। वह हकीकत जानने वाला होता है। और साथ ही वह बेहद बहादुर होता है, क्यूंकि वह जो भी कहता है, उसको घर के बड़े लोग पसंद नहीं करते। और जब वे पसंद नहीं करते तो उसको ‘घर-निकाला" दे देते हैं।
बीजेपी और कांग्रेस दोनों में नेतृत्व से विसम्मति दिखाना, लीडर से इख्तिलाफे-राय होना बनता नहीं है। विसम्मति गद्दारी मानी जाती है। नेता के प्रति, पार्टी के प्रति गद्दारी। और फिर अपने एक टेढ़े तर्क से, देश के प्रति भी। अरुण अब चाहें तो बीजेपी के जेपी बन सकते हैं, जैसे कि प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ‘आप" के बन चुके हैं। इससे प्रजातंत्र को ताकत मिलतीहै।
align="justify"> जमीर जब भी उठ खड़े होकर बोलता है, वो सबकी भलाई के लिए ही बोलता है।
(लेखक पूर्व राज्यपाल, उच्चायुक्त हैं और संप्रति अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास व राजनीति शास्त्र
के विशिष्ट प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)