बहरहाल, इस आपदा से निपटने के लिए नेपाल के सभी मित्र देशों को आगे भी अनवरत सहयोग करना होगा। नेपाल फिलहाल दो मोर्चों पर जूझ रहा है। पहला, वहां साफ-सफाई करनी होगी और यह देखना होगा कि मलबे के अंदर कहीं लोग दबे तो नहीं हैं? और दूसरा, सड़कों पर जीने को मजबूर लोगों तक भोजन और पेयजल सहित तमाम राहत पहुंचानी होगी। लेकिन बाहर से आने वाली राहत सामग्रियों का बंटवारा संबंधित देशों को अपने-अपने तरीके से करने से बचना चाहिए। इसके लिए स्थानीय प्रशासन अथवा केंद्रीय तंत्र की मदद ली जानी चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि अपने तरीके से काम करने की वजह से हो सकता है कि सामान कुछ निश्चित जगह ही पड़े रह जाएं अथवा जरूरतमंदों तक पहुंचें ही नहीं। इसलिए दूसरे देशों को स्थानीय प्रशासन के साथ तालमेल बिठाकर ही काम करना चाहिए। इसी तरह के समन्वय की जरूरत वहां पुनर्निर्माण के कार्यों में भी होनी चाहिए। सामान्यतः ऐसे हालात में भूकंप पीड़ित भयभीत हो जाते हैं, लिहाजा उनके आक्रोश को कम करना और फिर से खड़ा होने का उनमें जज्बा बढ़ाने के प्रयास भी जरूरी हैं।
यहां एक बात पर खास तौर पर ध्यान देना होगा कि इस तरह की आपदा के बाद जब लोगों का पलायन होता है, तो असामाजिक तत्व फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। लूटपाट, मारपीट आदि तो होती ही है, आतंकी और चरमपंथी समूह भी वहां गढ़ बनाने की कोशिश करते हैं। सोमालिया के हालात बिगड़ने के बाद जब वहां के शरणार्थी केन्या पहुंचे, तो अल शवाब जैसे संगठनों ने वहां अड्डा जमा लिया या अमेरिका जब सीरिया में लोकतंत्र स्थापित करने इराक गया, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं की पुनर्स्थापना के साथ ही वहां की स्थानीय सरकार भी पटरी से उतरी, जिस कारण उन क्षेत्रों में इस्लामिक स्टेट (आईएस) को पनपने का मौका मिला। स्थिति यह है कि अभी ब्रिटेन के बराबर का क्षेत्र आईएस के कब्जेमें है। नेपाल में ऐसा न हो, इसका खास ध्यान रखना होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि पिछले दस-पंद्रह वर्षों से वहां के हालात काफी खराब रहे हैं। वहां पहले माओवादी संघर्ष होता रहा, और फिर सरकार ही नहीं बन पाई। बाद में गठबंधन वाली सरकार बनी भी, तो संविधान का निर्माण तक नहीं हो पाया। लिहाजा वहां सेना, स्थानीय प्रशासन अथवा पुलिस पर जिस एकीकृत नियंत्रण की जरूरत होती है, उसमें कमी है। इसे देखते हुए वहां की सेना और हमारी सेना को, क्योंकि दोनों करीब रही हैं, मिलकर काम करना होगा, और अवांछित तत्वों को वहां बढ़ने से रोकना होगा।
हमारी सरकार को इस पर इसलिए भी ध्यान देना चाहिए, क्योंकि नेपाल के आंतरिक हालात को देखते हुए चीन और पाकिस्तान जैसे देशों ने वहां पिछले दशक भर से अपनी सक्रियता बढ़ाई है। भारत-नेपाल सीमा के नजदीक वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी। स्थिति यह है कि उन क्षेत्रों में एक हजार से ज्यादा मदरसे वगैरह दिख जाएंगे, जबकि नेपाल में मुस्लिम आबादी ज्यादा नहीं है। साथ ही, भारत में नकली नोट भी नेपाल के रास्ते ही आते हैं। यानी नेपाल अवांछित तत्वों का अड्डा बना हुआ है, इसलिए अगर अभी वहां का सरकारी तंत्र थोड़ा-सा भी कमजोर होता है, तो ऐसे तत्वों को फलने-फूलने का मौका मिल सकता है। वैसे भी, चीन नियमित तौर पर भारत और नेपाल के ‘रोटी-बेटी संबंध’ को तोड़ने की कोशिश करता ही रहा है। वह पूर्व में माओवादियों को प्रशिक्षण दे चुका है, और जब माओवादियों को नेपाल की सेना में जगह मिली, तो वह उनके माध्यम से नेपाल में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था। लिहाजा भारत सरकार को चाहिए कि वह नेपाल को यह बताए कि नई दिल्ली उसे तमाम मुश्किलों से उबरने में मदद करेगी, लेकिन चीन, पाकिस्तान या अन्य स्थानीय तत्वों की तरफ से अस्थिर करने वाली कोशिशों को अपने यहां बढ़ने से उसे रोकना होगा।
रही बात भूकंप जैसी आपदाओं से निपटने की, तो प्राकृतिक आपदा इन क्षेत्रों में अस्वाभाविक नहीं है। इसलिए क्यों न पहले से ही दोनों देश आपसी प्रशिक्षण कार्य करें या बिल्डिंग कोड का मजबूती से पालन करते हुए निर्माण कार्य करें। लोगों को आपात स्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी होनी चाहिए। इसके अलावा भारत को तत्काल मदद करने के कारण वाहवाही लेने से भी फिलहाल बचना चाहिए, क्योंकि अब भी नेपाल के सुदूर इलाकों में मदद नहीं पहुंच सकी है। लिहाजा ऐसा प्रचार हमारी छवि को तो नुकसान पहुंचा ही सकता है, नेपालियों को आक्रोशित भी कर सकता है।
-लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं