पूरी सभा एक खेतिहर किसान की अकाल मृत्यु की साक्षी थी, पर अखबारों की मानें तो किसानों के पक्ष में उनकी प्रतिबद्धता इतनी जुनूनी थी कि वे बिना किसी व्यवधान के सभा चलाते रहे। किसान की मृत्यु की यह अत्यंत दु:खद घटना भी किसान की पक्षधरता को स्थापित करने के अनथक प्रयास से उन्हें डिगा नहीं सकी। देखते हुए को अनदेखा करती सभा अपने लक्ष्य को पाने में मशगूल रही, नेताजी का प्रवचन बदस्तूर जारी रहा। मृत्यु का क्या, वह तो होनी ही है, यह तो ध्रुव सत्य है, पर राजनीति का क्या ठिकाना। वह क्षण-क्षण में रंग बदलती है, इसलिए उसकी फौरी जरूरतों को किसी शर्त पर टाला नहीं जा सकता।
संवेदनहीनता का यह वीभत्स और क्रूर प्रकरण हमारे समाज के चरित्र या स्वभाव के कुछ ऐसे पक्षों पर टिप्पणी भी है, जो उस तरफ भी संकेत करती है, जो विसंगति से भरे हैं। यह सब एक करारा व्यंग्य भी है हमारी जर्जर होती, टूटती चरमराती प्रशासन व्यवस्था पर, भोथरी होती जाती संवेदना की भावना पर, समाप्तप्राय मानवीय बोध पर और सब कुछ को सतही तौर पर या कहें कैजुअली ग्रहण करने की बढ़ रही प्रवृत्ति पर। यह निश्चय ही एक अद्भुत और अपूर्व दृश्य है, जहां एक सार्वजनिक स्थल पर यह अनहोनी घटित होती है। माननीय मुख्यमंत्री उपस्थित हैं (और साथ ही उनका प्रशासनिक अमला भी), उत्साहसंपन्न् जनता भी मौजूद है। सभी कौतूहल से देख रहे हैं, शायद चकित भी हैं कि किसान की जिस मजबूरी का जिक्र वहां किया जा रहा है, वह स्वयं प्रत्यक्ष रूप में उपस्थित है। पर घटना ऐसा खतरनाक मोड़ ले लेगी, इसका किसी को अंदाजा नहीं था।
समाज में आज सभी मूकदर्शक बने बैठे हैं, सिर्फ और सिर्फ तमाशबीन हैं। दूसरी ओर हमारे तथाकथित नायकगण तमाशे से ही सच को रचने-रचाने के काम में जुटे हुए हैं। अभिनेता तो तमाशा करते ही हैं, वह तो उनका व्यवसाय है, पर हमारे राजनेता भी आए दिन तमाशा करने से बाज नहीं आते। रोड शो, सड़कछाप तमाशा तो अब राजनीति का वैध अंग बन चुका है। तमाशा देखना और दिखाना हमारा व्यसन होता जा रहा है। पर तमाशा तो तमाशा होता है, सत्य और प्रामाणिकता से उसका दूर का रिश्ता होता है।
हम सभी तरह-तरह का तमाशा देखने के आदी हो चुके हैं। आज तमाशाएक राष्ट्रीय उत्सव का रूप ले चुका है। रैलियां, रेला और महारैलियां की जाती हैं, ठेकों पर ट्रकों, बसों और ट्रेनों आदि में भर-भर कर लोग लाए जाते हैं। पशुओं की तरह उन बेचारों को लाकर कुछ चारा दे दिया जाता है। आमतौर पर तो उन्हें यह भी मालूम नहीं रहता कि वे कहां ले जाए जा रहे हैं, क्यों लाए जा रहे हैं और उन्हें क्या करना है। उनमें अधिकांश तो सिर्फ मेला घूमने या शहर देखने के मन से आते हैं। पार्टी एक प्रदर्शन या शो करती है और दिखाती है कि हमारी क्या और कितनी औकात है। अपने को और अपनी सत्ता को सिद्ध करने का यह काम गाहे-बगाहे हर राजनीतिक पार्टी करती ही रहती है।
तमाशाई मिजाज हमारे स्वभाव में बुरी तरह से घर करता जा रहा है। अब यह नियम-सा हो गया है कि काम कम हो तो काम का दिखावा या उसका तमाशा जरूर ज्यादा होना चाहिए। विज्ञापन आज का सबसे बड़ा तमाशा बन चुका है। बिना विज्ञापन के शिक्षा, स्वास्थ्य, समाजसेवा कुछ भी नहीं चलने वाला। विज्ञापन का कारोबार दिनोंदिन बढ़ रहा है और शायद सब व्यवसायों की अपेक्षा तेजी से विज्ञापन का तमाशा तब बढ़ा है, जब आज अभिनंदन, वंदन और पूजन का हम कोई भी अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देते। कई लोग अपना अभिनंदन खुद अपने खर्च पर करवाते हैं। हद तो तब होती है, जब नेता की मूर्ति पूजा शुरू होती है। और तो और, नेता अपनी मूर्ति खुद सरकारी खर्चे पर बनवाने की व्यवस्था करते हैं। कुल मिलाकर हम प्राण और स्वत्वहीन तमाशाई बनते जा रहे हैं।
गजेंद्र सिंह की कारुणिक मृत्यु-कथा की पुनर्रचना हो रही है और सभी राजनीतिक दल गजेंद्र सिंह के परिवार के लिए अपनी श्रद्धा के अनुसार अपना आर्थिक योगदान देकर प्रायश्चित करने में जुटे हुए हैं। पूरी घटना के आशय और प्रयोजन को लेकर काम चल रहा है कि उसे कैसे अपने हित में सिद्ध किया जाए। मृत्यु को तमाशा बनाने का काम चालू है। पर तमाशा तमाशा ही होता है। तमाशे का व्यापार ज्यादा दिन टिक नहीं सकता। यदि हम देश को शक्ति-संपन्न् और समर्थ बनाना चाहते हैं तो तमाशाई सोच से हमें ऊपर उठना होगा।
-लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुलपति हैं।