जनता का सम्मान करना सीखिए- नीलांजन मुखोपाध्याय

हर पेशेवर आदमी की सफलता के लिए औजार या हुनर और कच्चे माल की जरूरत पड़ती है। मसलन, जूता तैयार करने वाली कंपनी को औजार के रूप में श्रमिक और कच्चे माल के तौर पर चमड़े और दूसरी चीजों की आवश्यकता पड़ती है। भारत में राजनीति भी एक पेशा है, और इसमें सफल होने के लिए चिंतन क्षमता, रणनीति बनाने की काबिलियत, अभिव्यक्त कर पाने की शक्ति और प्रचार में निपुण होने की जरूरत पड़ती है। नेताओं के लिए जनता कच्चा माल ही है, चुनाव में उसके वोट फिनिश्ड उत्पाद की तरह होते हैं।

मनुष्य को अपने औजारों और कच्चे मालों के प्रति सम्मान जताने की कला मजदूरों से सीखनी चाहिए। जूते गांठने वालों को ही लीजिए। उन्हें अपने काम के लिए तामझाम नहीं चाहिए। लेकिन शहरों-महानगरों की गंदगियों के बीच भी जहां वे दुकान लगाते हैं, उन्हें आप साफ पाएंगे। यानी जब तक लोग अपने कार्यस्थल, औजार और कच्चे माल का सम्मान नहीं करते, वे अपेक्षित नतीजा नहीं देते।

राजनेताओं की मूलभूत कमी यह है कि वे जनता को गंभीरता से नहीं लेते। उन्‍हें हमेशा ऐसा निर्णय लेना चाहिए, जो जनता के हितों की रक्षा करे। उनके आचरण में ऐसा कदापि नहीं दिखना चाहिए कि वे जनता को मनुष्य नहीं, वस्तु समझ रहे हैं। पर जब भी कोई नेता किसी के समर्थन या विरोध में रैली करता है, तब उसका मुख्य ध्यान यही होता है कि अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों की भीड़ किस तरह जुटाई जाए। ऐसा बहुत कम होता है कि ऐसे आयोजनों में नेता अपने समर्थक-कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की चिंता करें या उन्हें यह बताने की कोशिश करें कि आयोजन का उद्देश्य क्या है।

दिल्ली के जंतर-मंतर पर किसान रैली के आयोजन का आम आदमी पार्टी का एक तो फैसला ही बहुत गलत था। आप को अब जिम्मेदार राजनीतिक पार्टी की तरह आचरण करना होगा। वह कॉलोनी स्तर की पार्टी नहीं है, न ही विरोधियों की कोई जमात है। आप ने दिल्ली का चुनाव भारी बहुमत से जीता है। ऐसे में, उसके समर्थकों के एक छोटे से हिस्से के आने पर ही रैली स्थल का भर जाना तय था। इसके बावजूद पार्टी वहीं रैली करने के अपने फैसले पर टिकी रही।

आप की दूसरी गलती यह थी कि उसके नेता या कार्यकर्ता गजेंद्र सिंह को पेड़ से उतारने के लिए मजबूर नहीं कर पाए। यह इसी का नतीजा रहा होगा कि उसे पेड़ पर चढ़ते देख लोगों ने उसके प्रति जो उत्सुकता जताई थी, वह बाद में कायम नहीं रह पाई, और वह व्यक्ति अकेला रह गया। हालांकि हम अब भी उन घटनाओं के बारे में ज्यादा नहीं जानते, लेकिन तमाम घटनाओं और सुबूतों की रोशनी में देखें, तो ऐसा लगता है कि डाल से वह एक अप्रत्याशित फिसलन थी, जिसने गजेंद्र की जान ली और उसके परिवार को ऐसी त्रासदी दे दी।

आप की तीसरी गलती तब दिखी, जब गजेंद्र सिंह पेड़ से गिरा, और ऐसा लगा कि या तो उसका देहांत हो चुका है या उसे भीषण रूप से चोट लगी है।यह ठीक है कि वैसी स्थिति में आप के नेता भयभीत प्रतिक्रिया जताते या मंच छोड़ देते, तो इकट्ठा भीड़ में भी प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती। लेकिन आप के नेताओं को व्यंग्योक्तियों से भी बचना चाहिए था, जैसा कि आशुतोष ने कहा, कि अगली बार जब कोई आदमी खुदकुशी के लिए पेड़ पर चढ़ेगा, तब अरविंद केजरीवाल उन्हें उतारने के लिए पेड़ पर चढ़ेंगे। बाद में आशुतोष ने अपनी टिप्पणी के लिए खेद जताया, पर जो नुकसान होना था, वह हो चुका था।

 

मैं नरेंद्र मोदी का अंधभक्त नहीं हूं। लेकिन वह भीड़ के साथ बर्ताव करने की कला जानते हैं। जिन्होंने भी उनका भाषण सुना है, या टेलीविजन पर उन्हें बोलते हुए देखा है, वे तस्दीक करेंगे कि वह भाषण देने से पहले लोगों को बैठने, शोर न मचाने, पेड़ों से उतरने, और सबसे महत्वपूर्ण यह, कि माताओं और बहनों को जगह देने की गुजारिश करते हैं। विगत लोकसभा चुनाव में उन्‍होंने हरियाणा में एक रैली की थी। जब पेड़ों और खंभों पर चढ़े लोगों को उतरने के लिए कहने के उनके शुरुआती अनुरोधों का कोई असर नहीं पड़ा, तब उन्‍होंने कहा कि हरियाणा के लोगों की शारीरिक ताकत और बहादुरी से वह अवगत हैं, लेकिन उन्हें इसका प्रदर्शन कहीं और करना चाहिए। जब यह तरकीब भी काम नहीं आई, तब उन्होंने धमकी दे डाली कि अगर लोग नीचे नहीं उतरते, तो वह मंच छोड़कर चले जाएंगे।
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दुर्भाग्य की बात है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों की जिंदगी, इस मामले में आप, पीपली लाइव की तरह हो गई है, जिसमें राजनीतिक मुनाफे की चाह में अपने समर्थकों की सुरक्षा से भी समझौता करने से कोई भी नहीं हिचकता। गजेंद्र सिंह जैसों की उन्हें जरूरत है, क्योंकि ऐसे ही लोग विरोध स्वरूप होने वाली रैलियों की नीरसता दूर करते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि ऐसी हरकतों से वे मशहूर हो जाएंगे, दूसरी ओर, आप समेत दूसरी पार्टियों के नेताओं के मन में ऐसे लोगों के प्रति किसी तरह के आभार की भावना भी नहीं होती। पार्टियां ऐसे लोगों और उनकी सनक का भरपूर फायदा उठाने की फिराक में रहती हैं।

 

अयोध्या में विवादास्पद ढांचा ढहाए जाने वाले दिन, यानी छह दिसंबर, 1992, को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी जिंदगी का सबसे दुखद दिन बताया था। लेकिन दुखद यह है कि संघ परिवार और दूसरी पार्टियों ने भी अब तक लोगों के हुजूम को काबू में रखने का पाठ नहीं सीखा है। लोगों के गुस्से को भड़काना आसान है, पर उन्हें शांत रखने में खासी मुश्किल आती है। गौरतलब है कि उस दिन के बाद भाजपा कभी अयोध्या आंदोलन के लिए लोगों का वैसा समर्थन नहीं जुटा पाई। आम आदमी पार्टी को भी अब विरोध प्रदर्शन के लिए भीड़ जुटाने में दिक्कत आएगी, क्योंकि कार्यकर्ताओं के परिवार नहीं चाहेंगे कि वे ऐसे आयोजनों का हिस्सा बनें। केवल इसी वजह से 22 अप्रैल आप और केजरीवाल के लिए एक दुखद दिन होना चाहिए।

�-वरिष्ठ पत्रकार, और नरेंद्र मोदी-द मैन, द टाइम्स के लेखक

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