कारपोरेट खेती से किसका भला होगा- सुभाषचंद्र कुशवाहा

मानो फसलों की बर्बादी और किसानों की आत्महत्या ही काफी न हो, अब एसोचैम ने शोध प्रस्तुत किया है कि कॉरपोरेट और ग्रुप फार्मिंग ही छोटे किसानों को आपदाओं से बचाएगी। एसोचैम किसानों को राहत देने के पक्ष में नहीं है। उसकी मंशा कंपनियों को राहत देने की है। उसके मुताबिक, किसानों की जमीन औने-पौने दामों में कॉरपोरेट को सौंप देनी चाहिए। उसका मानना है कि कृषि ऋण लगातार बढ़ाने के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोतरी नहीं हो रही। मानो बैंक ऋण सिर्फ किसान लेते हों या जीडीपी वृद्धि का सारा बोझ किसानों पर ही डाला जाना चाहिए।

हमने परंपरागत बीजों को किसानों से छीनने और डंकल बीजों पर निर्भर बनाते समय ही इस आशंका को सामने रखा था कि किसानों को गुलाम बनाने की नीति लागू की जा रही है। एक दिन कॉरपोरेट फार्मिंग के बहाने किसानों की जमीनें ले ली जाएंगी। उन्हें अपने ही खेतों में मजदूर बन जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिया जाएगा। आज वह आशंका सच साबित हो रही है। आत्मनिर्भर गांवों के जीवन की हर वस्तु-हवा, पानी, पेड़-पौधे, जंगल, जमीन पर कॉरपोरेट जगत कब्जा करता जा रहा है। बीजों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देसी कॉरपोरेट का एकाधिकार हो चुका है। खेती-किसानी में जो भी प्रयोग किए गए हैं, वे सब किसानों को कॉरपोरेट निर्भरता की ओर ले जाते हैं। कॉरपोरेट नीतियां ही खेती की लागत बढ़ा चुकी हैं। अब किसानों के सामने सपने बेचते हुए उन्हें आत्महत्या को मजबूर किया गया है।

ब्रिटिश काल के अकाल, लगान, दमन और जमींदारों के बेइंतहा जुल्मों के बावजूद किसानों ने आत्महत्या नहीं की थी। पर आज खाते-पीते किसान आत्महत्या को विवश हो रहे हैं। आत्महत्याओं का यह दौर तब शुरू हुआ, जब खाद, पानी, बीज, कीटनाशक आदि पर कॉरपोरेट का कब्जा हो गया। हमारे किसानों को आर्थिक सहायता दुनिया के सभी कृषि प्रधान देशों की तुलना में बहुत कम मिलती है। अमेरिका में किसानों को सालाना 20 अरब डॉलर की सब्सिडी मिलती है, जो प्रति हेक्टेयर 32 डॉलर है। जबकि अमेरिका में केवल पांच प्रतिशत आबादी ही कृषि पर निर्भर है। अपने यहां प्रति हेक्टेयर 14 डॉलर की सब्सिडी मिलती है, जबकि हमारे यहां 60 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है। इसके बावजूद एसोचैम को हमारे किसानों को मिलने वाली सब्सिडी नहीं भा रही। दस-बीस हजार के कर्ज पर किसानों की कुर्की हो जाती है, जबकि बड़ा आर्थिक घोटाला करने के बावजूद कॉरपोरेट घरानों का कुछ नहीं बिगड़ता।

गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी और किसानों के कर्ज माफी को मुद्दा बनाने वाले कॉरपोरेट घरानों ने विगत 13 वर्षों में एक लाख करोड़ कर्ज को, जिनमें से 95 प्रतिशत बड़ा कर्ज था, वसूल न होने योग्य घोषित करा लिया है। यह बात रिजर्व बैंक के पूर्व उप गवर्नर केसी चक्रवर्ती तक स्वीकार कर चुके हैं।

जाहिर है, कॉरपोरेट खेती के जरिये छोटी जोत के किसानों का उद्धार नहीं होगा, बल्कि उन्हें दास प्रथा की ओर धकेल दिया जाएगा। खेती-किसानी इस देश में व्यवसाय नहीं, बल्कि संस्कृति रही है। यह प्रकृति संरक्षण की अंतिम कड़ी है। कॉरपोरेट फार्मिंग केजरिये इस अंतिम कड़ी को भी छीनने और लाभ में बदलने की बेचैनी दिख रही है।

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