इस भूकंप के बाद हमारे सामने कई मसले आन खड़े हुए हैं। सबसे पहले और बुनियादी रूप से तो यही कि दक्षिण एशिया में आपदाओं के प्रति हमारी अवधारणा क्या है। इन्हें हम किस दृष्टि से देखते हैं। वास्तविकता यह है कि दक्षिण एशिया में हम सीमापार आपदाओं को ज्यादा महत्व नहीं देते। उन्हें अपनी चिंता का विषय नहीं मानते। जबकि हकीकत यह है कि भौगोलिक जगत में चीजें आपस में जुड़ी होती हैं और सीमारेखाओं में उस तरह से विभाजित नहीं होतीं, जैसी किसी राजनीतिक नक्शे में लग सकती हैं।
हम यह मान बैठे हैं कि प्राकृतिक आपदाएं केवल उस देश की समस्या है, जहां पर वे घटित होती हैं और हम ज्यादा से ज्यादा आपदा घटित होने के बाद उस देश को मदद मुहैया कराने का काम भर कर सकते हैं। कोसी नदी में आने वाली बाढ़ का उदाहरण हमारे सामने है। यह नदी तिब्बत और नेपाल से होकर भारत में प्रवेश करती है, लेकिन बिहार में इस नदी में आने वाली बाढ़ के कारण अकसर आपदापूर्ण स्थितियां निर्मित हो जाती हैं। बाढ़, सूखा, चक्रवात और भूकंप, ये ऐसी आपदाएं हैं, जिन्हें किन्हीं राजनीतिक सीमारेखाओं में नहीं बांधा जा सकता। संबंधित देशों की सरकारों द्वारा मिलकर ही इस तरह की आपदाओं से निपटने के प्रयास किए जाने चाहिए।
दूसरी बात जो हमें समझनी चाहिए, वो है इस किस्म के भूकंप की मारक-क्षमता। नेपाल और भारत में तकरीबन चार हजार लोगों की जान ले चुका यह भूचाल इस तरह के आगामी भूकंपों की कड़ी में महज एक छोटी-सी चेतावनी भर है। भविष्य में आने वाले भूकंप इससे भी भयावह हो सकते हैं, इसीलिए समय आ गया है कि युद्धस्तर पर उनसे बचाव की तैयारियां पहले ही शुरू कर दी जाएं। हिमालय पर्वत श्रृंखला के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे देशों, जिनके शहरों और कस्बों में घनी बसाहट है और जो बेतरतीब बसे हुए हैं, को इनसे बचाव के लिए कमर कस लेनी चाहिए। यही कारण है कि मौजूदा भूकंप दो चुनौतियां लेकर सामने आया है : संकट का तात्कालिक निदान करना, और भविष्य में इसको लेकर बरती जा सकने वाली सतर्कताओं को सुनिश्चित करना।
तीसरी बात जो ध्यान देने जैसी है, वो यह कि क्या हमें रिकवरी के संभावित ‘गुजरात मॉडल" पर अपना अधिक ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए? अभी तक दक्षिण एशिया में जितने भी भूकंप आए हैं, उनसे निपटने में ‘गुजरात मॉडल" सर्वाधिक प्रभावी साबित हुआ है, जो कि वर्ष 2001 में गुजरात में आए भयावह भूकंप में अपनाया गया था। सवाल यह है कि नेपाल में भूकंप ने जो तबाही मचाई है, उसके प्रभाव को कम करने के लिए वहां की सरकार ‘गुजरात मॉडल" को कैसे अपनासकती है, खासतौर पर तब, जबकि गुजरात में आए भूकंप के राहत-कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले नरेंद्र मोदी अब भारत के प्रधानमंत्री हैं और नेपाल की हरसंभव मदद करने के लिए तत्पर हैं। या फिर नेपाल आपदा की इस स्थिति में इसके बजाय चीनी मॉडल को अपनाना पसंद करेगा, क्योंकि भूकंप की स्थितियों का सामना करने और उनसे तेजी से उबरने, दोनों ही में चीन का अब तक का
ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा रहा है।
चौथा बिंदु वित्तीय कारणों से संबंधित है। दक्षिण एशियाई देशों की सरकारों और वित्तीय व्यावसायिक संस्थाओं ने अपने नागरिकों को बैंकिंग और वित्तीय सेवाएं मुहैया कराने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए हैं। दक्षिण एशिया में आज जितने लोगों को ये सुविधाएं प्राप्त हैं, उससे ज्यादा संख्या उन लोगों की है, जिन्हें ये सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। नागरिकों के वित्तीय संस्थाओं से न जुड़े होने के कारण न केवल आर्थिक विकास प्रभावित होता है, बल्कि आपदा की स्थिति में राहत कार्य भी इससे प्रभावित होते हैं। अगर आपदा की स्थिति में नागरिकों के हाथों में पैसा हो तो इसकी तुलना में उन तक भोजन और पेयजल पहुंचाने का सीमित महत्व ही हो सकता है। हम देख सकते हैं कि दक्षिण एशियाई देशों में बाजार का प्रसार तो हो गया है, लेकिन इन बाजारों का दोहन करने के लिए वित्तीय सामर्थ्य का प्रसार अभी वांछित सीमा तक नहीं हो सका है।
आज नेपाल के सामने दो रास्ते हैं। पहला यह कि वह पहले की तरह फिर से अपना पुनर्निर्माण करे और आर्थिक विकास की राह अपनाए। दूसरा यह कि वह अपने आसपास के पर्यावरण के अनुरूप अपना पुनर्निर्माण करे। वह अपने पर्यावरण की अनदेखी न करे और दीर्घकालिक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए विकास की राह पर चले। दूसरा रास्ता ही ज्यादा सूझबूझ भरा जान पड़ता है। लेकिन सवाल उठता है, ऐसा कैसे किया जाए?
इसके लिए जरूरी है कि हर हाल में अस्पतालों और स्कूलों का सुरक्षा ऑडिट किया जाए और जो नए अस्पताल और स्कूल बन रहे हैं, उनका भूकंपरोधी होना सुनिश्चित किया जाए। हमारे यहां भूकंप के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए स्थानीय आपदा प्रबंधन योजनाओं की समीक्षा लंबे समय से नहीं की गई है। सर्वाधिक संवेदनशील जिलों का थर्ड पार्टी रिव्यू भी लंबे समय से नहीं हुआ है। मॉक ड्रिल्स की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। यह कोई आखिरी भूकंप नहीं था। छोटे कस्बों में नियमित व सुनियोजित रूप से भूकंपरोधी मॉक ड्रिल्स अब प्रारंभ कर दी जानी चाहिए।
वर्ष 1995 में जब जापान के कोबे में भूकंप आया था, तब मैंने उसकी समीक्षा की थी। चंद माह पूर्व मुझे कोबे में हुई रिकवरी की समीक्षा के लिए आमंत्रित किया गया था। मैं देखकर दंग रह गया कि इन बीस वर्षों में कोबे ने क्या कमाल की रिकवरी की है! ऐसा हम भी कर सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है जब हम आपदा निवारण संबंधी दूरदृष्टि अपनाते हुए दीर्घकालिक विकास की राह पर आगे बढ़ेंगे।
(लेखक अखिल भारतीय आपदा निवारण संस्थान (एआईडीएमआई) के संस्थापक-संचालक हैं)