राजनीतिक दलों में दलितों को लुभाने की होड़ – शिवानंद तिवारी

यह सबने देखा कि पिछले दिनों करीब-करीब सभी दलों में आंबेडकर जयंती मनाने को लेकर किस कदर होड़ रही। इस होड़ ने यही साबित किया कि दलित वोट की महत्ता आज पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ गई है। दलितों को मतदान का अधिकार तो शुरू से ही है, लेकिन समाज में अपनी दयनीय स्थिति और राजनीतिक चेतना के अभाव में दलित समाज अपने इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाता था। किंतु आज हालात बदल गए हैं। पार्टियों के बीच आंबेडकर जयंती मनाने की होड़ इसी सामाजिक-राजनीतिक सच्चाई को रेखांकित करती है।

भारतीय जनता पार्टी पहली दफा बहुत आक्रामकता के साथ इस होड़ में शामिल हुई है। स्वाभाविक है कि भाजपा की यह आक्रामकता उन दलों को रास नहीं आ रही, जो बैठे-बिठाए दलित मतों पर अब तक अपना एकाधिकार समझते रहे हैं। बिहार या हिंदी पट्टी में दलितों का एक समय कांग्रेस से और थोड़ा-बहुत समाजवादियों तथा वामपंथियों से जुड़ाव रहा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में कांसीराम के उदय के बाद अधिकांश दलित कांग्रेस के पाले से निकलकर बहुजन समाज पार्टी के साथ जुड़ गए। हालांकि बिहार का दलित समाज सामाजिक न्याय आंदोलन के समय यानी 90 से कांग्रेस से अलग होने के बाद जनता दल के साथ जुड़ा रहा था। लेकिन आज स्थिति में तेजी से बदलाव होता हुआ दिख रहा है। भाजपा से दलित समाज का परहेज अब समाप्त होता नजर आ रहा है।

भाजपा दलित विरोधी है या इसकी नीति आंबेडकर साहब की नीतियों से उलट है, का शोर मचाने से दलितों के भाजपा की ओर बढ़ते रुझान को रोका नहीं जा सकता है। नीति, सिद्धांत या विचार की समझ तो राजनीति करने वालों में ही दुर्लभ है। फिर इन गरीबों में इसकी समझ की अपेक्षा करना तो अपनी नासमझी को छुपाने जैसा है। सवाल है कि दलित मतों पर अपनी दावेदारी जताने वाले दल दलितों के बीच क्या काम कर रहे हैं? सरकारी स्तर पर आर्थिक लाभ वाली चटनी जैसी एकाध योजना घोषित कर देने से दलित समाज स्थायी रूप से बंधुआ की तरह हमारा मतदाता हो जाएगा, ऐसी समझ रखने वालों पर तरस ही खाया जा सकता है। दलितों की समस्याएं भीषण हैं। जीवन को चलाने के लिए हर पल उन्हें जूझना पड़ता है। आप चटनी खिलाकर चाहते हैं कि दलित आपके खूंटे से बंधे रहें।

मायावती इसी मुगालते में रह गईं और बीते लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी का खाता तक नहीं खुल पाया। हमेशा महारानी की ही भूमिका में वे नजर आईं। ठीक है कि वंचित और दमित-शोष्ाित समाज को राजा या रानी के रूप में अपने नेता की भूमिका कुछ समय के लिए अच्छी लग सकती है जैसे स्वांग करने वाले की भूमिका कुछ देर के लिए भाती है, लेकिन जब स्वांग नेता का स्थायी भाव हो जाए तो जनता के सामने उसको

छोड़कर दूसरे को आजमाने के अलावा क्या विकल्प बचता है।

बिहार में तो अजीब हुआ है। एक दलित को अपना कारिंदा मानकर नीतीश कुमार ने उसे ताज पहना दिया। इसको अपना महान त्याग बताकर वाहवाही लूटी, लेकिन जब उस ताज की ताकत का दलित मुख्यमंत्रीने इस्तेमाल करना शुरू किया, तब वे उसे पचा नहीं पाए। नीतीश ने फिर से उसके सिर से ताज उतारकर अपने सिर पर रख लिया। दलितों ने इसे अपना अपमान माना। बिहार भर में पहली मर्तबा दलितों ने सड़क पर उतरकर अपने रोष का प्रदर्शन किया। अब इसके बाद भी उन्हें यह मुगालता है कि दलितों के मत पर उनका ही एकाधिकार है तो इसका कोई इलाज नहीं है। सम्मान लोग आसानी से भूल जाते हैं, लेकिन अपमान तो लंबे समय तक दिल में शूल की तरह चुभता रहता है।

भाजपा दलितों के लिए सोने का महल नहीं बना रही है, लेकिन वह दलितों के बीच जा रही है। उनके साथ उठ-बैठ रही है। उनके बीच से आए नेताओं को अपने बगल में बैठाकर उनकी इज्जत-अफजाई कर रही है। यह सब उनके वोट के लिए हो रहा है, लेकिन दूसरे तो यह भी नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसके विपरीत गरीब तबके से आए कार्यकर्ताओं से तो लोग भर मुंह बात करने तक को तैयार नहीं हैं।

यह सही है कि केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनने के बाद उसके समर्थकों और नेताओं की नफरत फैलाने वाली बोली चिंता पैदा करती है। लोकसभा चुनाव का एजेंडा मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करना या मुसलमानों और ईसाइयों की नसबंदी कराना नहीं था, न हिंदू औरतों को दर्जनभर बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करना था। लेकिन भाजपा से लड़ने का स्वांग करने वाले दलों की लड़ाई ज्यादातर अखबारों और टेलीविजन चैनलों तक सीमित है। जबकि भाजपा वहां तक पहुंच रही है, जहां दूसरे जा भी नहीं रहे हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने विकास को अपना मुद्दा बनाया था। लोग उसका इंतजार कर रहे हैं। मुझे नहीं लग रहा है कि लोगों की वह उम्मीद अभी टूटी है। हमारे समाज में किसी नए पर जल्दी लोग भरोसा नहीं करते हैं, लेकिन एक बार जब भरोसा कर लेते हैं तो तुरंत उसको तोड़ते नहीं हैं। विकास के रास्ते को लेकर विरोध का स्वांग जरूर हो रहा है। कांग्रेस का दावा है कि मोदी अब तक हमारे निर्णयों को ही लागू कर रहे हैं। अपना तो अब तक उन्होंने कुछ दिखाया ही नहीं है। मोदी का जवाब है कि नीति तो आपकी ठीक थी, लेकिन उसको लागू करने की आपकी नीयत नहीं थी। हमारी नीयत ठीक है। हम उसे लागू कर रहे हैं, इसलिए आर्थिक नीति के मामले में इस देश की राजनीति की मुख्यधारा में मतभेद नहीं है। हां, मोदी को अपने कट्टरपंथियों पर लगाम लगाना होगा। इस देश का बहुमत समाज में घृणा और नफरत पसंद नहीं करता है। कहीं ऐसा न हो कि इनकी वजह से मोदी के रथ का पहिया बीच में ही फंस जाए।

-लेखक राज्‍यसभा सदस्‍य हैं।

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