जमीन को लेकर बढ़ती सियासी रार – आरती जेरथ

भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच निर्णायक मुठभेड़ के लिए मंच तैयार हो चुका है और दोनों ही पार्टियां इसके लिए अपनी फौजों को तैयार कर रही हैं। इसकी गूंज संसद में बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू होने पर सदन के भीतर और बाहर दोनों जगह सुनाई देगी, क्योंकि दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां अस्थिर किसान लॉबी को अपने पक्ष में करने की कोशिशों में जुटी हैं।

इसमें तो खैर कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कांग्रेस पार्टी भूमि अधिग्रहण के मुद्दे को लपकते हुए इसके जरिए अपने राजनीतिक पुनरुद्धार की पटकथा लिखने की कोशिश में लगी है। यूपीए सरकार के भूमि अधिग्रहण अधिनियम-2013 को एक लैंडमार्क काननू मानते हुए इसे राहुल गांधी की गरीब-समर्थक, किसान-समर्थक राजनीति के मॉडल के रूप में पेश किया गया था। यह बात अलग है कि मतदाताओं ने इसे लेकर गढ़ी गई हाइप को नकार दिया और वर्ष 2014 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी गांधी खानदान के युवराज के नेतृत्व में ऐतिहासिक पराजय झेलते हुए सिर्फ 44 सीटों पर सिमटकर रह गई।

मोदी सरकार का अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान करने के लिए इस कानून के कुछ प्रावधानों को हटाने का फैसला कांग्रेस के लिए संजीवनी की तरह आया। अचानक, कांग्रेस पार्टी को एक ऐसा मुद्दा मिल गया, जो उसके लिए राजनीतिक पूंजी बन सकता था और जिससे उसके उबरने की राह खुल सकती था। पिछले महीने एनडीए सरकार के भू-अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में राष्ट्रपति भवन तक निकाले गए मार्च में 14 गैर-भाजपाई दलों को लामबंद करने में सोनिया गांधी को जो सफलता मिली, उससे इस भरोसे को और बल मिला। उसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष किसानों तक पहुंचने के लिए सड़कों पर उतरीं और उनकी पार्टी संसद का सत्र दोबारा बुलाए जाने से ठीक पहले 19 अप्रैल को नई दिल्ली में भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में एक विशाल रैली का आयोजन भी करने जा रही है। इसी रैली के जरिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की वापसी की भी योजना है, जो तकरीबन दो महीने तक गायब रहने के बाद इसमें अपनी मौजूदगी दर्ज करा सकते हैं।

जहां इस मामले में कांग्रेस पार्टी की उत्सुकता को समझा जा सकता है, वहीं इस संवेदनशील और भावनात्मक मसले पर मोदी सरकार का अड़ियल रवैया हैरान करने वाला है। न सिर्फ इसने कांग्रेस को भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने का एक मंच प्रदान किया, बल्कि इस सरकार को अब इन धारणाओं से जूझना पड़ रहा है कि ये अमीर-समर्थक, किसान-विरोधी और कॉरपोरेट-हितैषी है।

पिछले महीने जब संसद पारंपरिक तौर पर मध्य-सत्र के ब्रेक के लिए स्थगित की गई, तो ऐसा माना जा रहा था कि सरकार 2013 के कानून में संशोधन करने वाले अध्यादेश को तब तक के लिए ठंडे बस्ते में डाल देगी, जब तक कि राजनीतिक माहौल अनुकूल नहीं हो जाता। यहां तक कि ग्रामीण विकास मंत्री बीरेंद्र सिंह समेत कुछ और मंत्रियों की ओर से ऐसे वक्तव्य भी आए, जिनसे लगा कि सरकार इस मामले में विपक्ष के साथ बातचीत कर बीच का रास्ता निकालने की इच्छुक है।

लेकिन मोदी के मन में कुछ और चल रहाथा। उन्होंने राज्यसभा का सत्रावसान कराया और भूमि अध्यादेश फिर से ले आए। इस तरह उन्होंने मानो कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को खुली चुनौती दे दी। इस प्रक्रिया में उन्होंने भू-अधिग्रहण को अपने सुधारवादी एजेंडे का निर्णायक नमूना बना दिया और इसे ऐसे दर्शाया मानो यही विकास और रोजगार सृजन का इकलौता अहम औजार हो।

अब जबकि दोनों पक्ष आगामी मुठभेड़ के लिए कमर कसकर तैयार हैं, मोदी के समक्ष फिलहाल दो चुनौतियां हैं। पहली तो यह कि उन्हें विधेयक के अपने संस्करण को राज्यसभा से पारित कराते हुए कांग्रेस को उसके खेल में हराना है। कांग्रेस इस बात के लिए समर्थन जुटाने में लगी है कि विधेयक को प्रवर समिति में भेज दिया जाए, ताकि यह ठंडे बस्ते में चला जाए। अब तक राज्यसभा में आंकड़े उसके पक्ष में हैं, लेकिन मोदी भी क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन जुटाने हेतु जी-जान से लगे हैं।

मोदी के समक्ष आगे मुश्किल चुनौती है। देशभर में जमीन एक भावनात्मक मसला है और उनके अधिग्रहण बिल पर पहले ही किसान-विरोधी होने का ठप्पा लग चुका है। ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के पास विशाल ग्रामीण मतदाता वर्ग है और अगले दो सालों में इनमें से कइयों को राज्यों में चुनाव का सामना करना है। ममता बनर्जी जैसे नेताओं ने अपना राजनीतिक कॅरियर जमीन के मुद्दे पर ही खड़ा किया है। याद करें कि वे पश्चिम बंगाल में 34 साल से शासन कर रहे वाम मोर्चे को इसीलिए हरा सकीं क्योंकि वे तत्कालीन माकपा सरकार की विवादास्पद जमीन अधिग्रहण नीति के खिलाफ नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों और भूमिहीन कृषक वर्ष के पक्ष में मजबूती से खड़ी हुईं। मोदी को उम्मीद है कि बजट सत्र के दोनों चरणों के बीच की इस अवधि में वे क्षेत्रीय नेताओं के साथ बातचीत कर अपने भूमि अधिग्रहण बिल के लिए उनका समर्थन जुटा लेंगे। कोयला व खनिज संसाधनों की नीलामी से जुड़े अन्य विवादित विधेयकों के लिए क्षेत्रीय दलों का समर्थन जुटाने में मिली सफलता ने भी उनकी उम्मीदें बढ़ा दी हैं। फिलहाल तो आंकड़ों की जंग है और यह तभी निपटेगी, जब संसद दोबारा बैठेगी।

लेकिन उनके समक्ष एक और संभवत: ज्यादा गंभीर चुनौती है। ग्रामीण इलाकों में और खासकर पूरे उत्तर भारत में बेमौसमी बारिश के चलते फसलों के नुकसान की वजह से किसानों के बीच गंभीर हताशा का माहौल है। राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे भाजपा शासित राज्यों के अलावा कई और राज्यों से किसानों की खुदकुशी की खबरें आ रही हैं। इसके अलावा यूपी में भी गन्ना उत्पादकों और शकर मिल मालिकों के बीच विवाद के चलते विकट स्थ्ािति है। इस मामले में मुलायम की पार्टी और भाजपा के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल चल रहा है, लेकिन पश्चिमी यूपी से मिल रही खबरों के मुताबिक वहां भाजपा सांसदों को किसानों का आक्रोश झेलना पड़ रहा है, जो चाहते हैं कि केंद्र उन्हें कर्ज के इस चक्र से उबारे।

इस अस्थिर माहौल में विपक्ष के इस प्रोपगंडा से विस्फोटक स्थिति निर्मित हो सकती है कि मोदी सरकार मॉल्स और ऊंची-ऊंची इमारते बनाने के लिए किसानों की जमीन छीनने पर तुली है। मोदी इस बात से भलीभांति वाकिफहैं।इसीलिए उन्होंने विपक्ष के प्रचार की हवा निकालने के लिए अपने कई मंत्रियों और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को आपदाग्रस्त किसानों से मिलने के लिए तुरंत भेजा। वे इसको लेकर किस कदर फिक्रमंद है, यह उनके ट्वीट्स से भी जाहिर है, जिनके जरिए वे नियमित तौर पर बताते रहते हैं कि उनकी सरकार किसानों को फसलों के नुकसान की वजह से उपजी दिक्कतों से उबारने के लिए क्या-क्या कदम उठा रही है। लेकिन क्या उन्होंने इसमें देर कर दी? वैसे दूसरों तक अपनी बात प्रभावी ढंग से पहुंचाने में मोदी का कोई सानी नहीं, जैसा कि उन्होनें अपने चुनाव अभियान के दौरान साबित भी किया। अगले कुछ हफ्ते हम जमीन के मसले पर किसानों का मन जीतने के लिए राजनीतिक दलों के बीच एक दिलचस्प मगर तगड़ा मुकाबला देखेंगे।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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