अब भी हो रही पर्यावरण की अनदेखी – डॉ. भरत झुनझुनवाला

राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि पर्यावरण और विकास को साथ-साथ चलाया जा सकता है। बात सही है। आइए देखें कि सरकार इन दोनों उद्देश्यों को किस प्रकार एक साथ हासिल कर रही है। देश के पर्यावरण कानूनों की समीक्षा करने को मोदी सरकार ने पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय कमेटी गठित की थी। कमेटी में पर्यावरण से संबंध रखने वाले एक ही शख्स थे विश्वनाथ आनंद। इनका पर्यावरण प्रेम इतना था कि नेशनल एन्वायरमेंट अपीलेट अथॉरिटी के उपाध्यक्ष के पद पर उनके सामने पर्यावरण रक्षा के जितने वाद आए थे, सबको उन्होंने खारिज कर दिया था।

मोदी ने पर्यावरण मंत्रियों को बताया कि कोयले की खदानों से पर्यावरण संरक्षण के लिए पहले जो शुल्क राशि ली जाती थी, उसे चार गुना बढ़ाया जा रहा है। यह राशि काटे गए जंगल के मूल्य की ली जाती है। वर्तमान में घने जंगलों के लिए 10 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर की राशि वसूल की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस मूल्य को रिवाइज करने को इंडियन इंस्टीट्यूट आफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट को कहा गया था। इन्होंने इस रकम को बढ़ाकर 56 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर कर दिया था। यानी 5.6 गुना वृद्धि की संस्तुति की गई। मोदी ने इसे घटाकर मात्र चार गुना करने की बात की है।

वर्तमान में सभी संरक्षित क्षेत्रों जैसे इको-सेंसटिव जोन, वाइल्ड-लाइफ पार्क इत्यादि में कोयले का खनन प्रतिबंधित है। सुब्रमण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि संरक्षित क्षेत्रों के केवल उन हिस्सों में कोयले के खनन को प्रतिबंधित रखा जाए, जहां जंगल का घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक है। संरक्षित क्षेत्रों के शेष हिस्सों को खनन आदि के लिए खोल दिया जाए। इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि देश के कुल जंगलों में इस घनत्व के जंगल मात्र 2.5 प्रतिशत क्षेत्र में हैं। अत: आने वाले समय में संरक्षित क्षेत्र में कोयले के खनन को छूट देने की तरफ मोदी बढ़ रहे हैं।

पर्यावरण और विकास को साथ-साथ लेकर चलने के लिए जरूरी है कि इस संतुलन की सरकारी समझ को न्यायालय में चुनौती दी जा सके। जैसे सरकार ने मन बनाया कि 70 प्रतिशत घनत्व से कम के जंगल में कोयले का खनन करने से पर्यावरण और विकास साथ-साथ चलेंगे। दूसरा मत हो सकता है कि संरक्षित क्षेत्रों में कोयले का खनन पूर्णत: प्रतिबंधित रखा जाए और अन्य जंगलों में भी 30 प्रतिशत से कम घनत्व के क्षेत्रों में ही खनन किया जाए। पर्यावरण और विकास दोनों तरह से साथ-साथ चलते हैं, ऐसा कहा जा सकता है। वर्तमान में ऐसे मुद्दों पर जनता नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में वाद दायर कर सकती है। सुब्रमण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि ऐसे वाद को सुनने के लिए एक अपीलीय बोर्ड बनाया जाए, जिसके अध्यक्ष हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज होंगे और सदस्य सरकार के दो सचिव होंगे। अपीलीय बोर्ड में पर्यावरणविद् के लिए कोई जगह नहीं है, यानी पर्यावरण संबंधी विवाद निपटाने के लिए इन्हें पर्यावरण विशेषज्ञों के ज्ञान की जरूरत नहीं है।

मोदी ने गंगा की सफाई की बातकी है। इस बिंदु पर सरकार द्वारा कुछ सार्थक कदम भी उठाए गए हैं, विशेषकर गंगा बेसिन में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर नकेल कसने की दिशा में। इन कदमों का स्वागत है, लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। नदी की मूल प्रकृति बहने की होती है। नदी में बहता पानी हो तो नदी प्रदूषण को स्वयं दूर कर लेती है। दुर्भाग्य है कि मोदी गंगा को बहने नहीं देना चाहते हैं। सुप्रीम कोर्ट में गंगा पर बन रहे बांधों का वाद चल रहा है। दिसंबर में पर्यावरण मंत्रालय ने कोर्ट में कहा कि जलविद्युत परियोजनाएं इस प्रकार बनाई जानी चाहिए कि नदी की मूल धारा अविरल बहती रहे। सरकार का यह मंतव्य सही दिशा में था, परंतु फरवरी में सरकारी वकील ने सुप्रीम कोर्ट से 6 ऐसी बांध परियोजनाओं को चालू करने का आग्रह किया, जिनमें बांध बनाकर गंगा के बहाव को रोका जाना था। ज्ञात हुआ कि सरकारी वकील को सीधे आदेश प्रधानमंत्री कार्यालय से मिला था।

पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गंगा को बहने देने की तरफ जो सही कदम उठाया गया था, उसे प्रधानमंत्री ने पलट दिया। गंगा पर इलाहाबाद से बक्सर के बीच मोदी सरकार ने 3-4 बैराज बनाने का प्रस्ताव भी रखा था। यूपी, बिहार की राज्य सरकारों द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किए जाने पर इस परियोजना को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। परंतु जल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इलाहाबाद के ऊपर ऐसे बैराज बनाने का विकल्प खुला छोड़ रखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी को गंगा के बहाव से कोई प्रेम नहीं है। मंत्रियों को दिए गए संबोधन में प्रधानमंत्री ने सौर तथा पवन ऊर्जा के विकास पर जोर दिया और जलविद्युत पर खामोशी बनाए रखी, जबकि उनका कार्यालय जलविद्युत के लिए सभी नदियों की अंत्येष्टि पर आमादा है।

प्रधानमंत्री ने प्रसन्‍नता व्यक्त की है कि देश में बांधों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह पूर्व सरकारों का कारनामा है, जिस पर आज संकट मंडरा रहा है। सुब्रमण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि वन्यजीव पार्कों के चारों ओर इको-सेंसटिव जोन की सीमा शीघ्र निर्धारित की जाए। सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह सीमा 10 किलोमीटर निर्धारित कर दी थी। कमेटी इस क्षेत्र को सीमित करना चाहती है।

वर्तमान में पर्यावरण स्वीकृति हासिल करने के लिए जनसुनवाई की व्यवस्था है। इस जनसुनवाई में देश का कोई भी नागरिक अपनी बात कह सकता है। सुब्रमण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि जनसुनवाई में केवल स्थानीय लोगों को भाग लेने दिया जाएगा। तात्पर्य हुआ कि नरोरा में बन रहे बैराज की जनसुनवाई में वाराणसी की जनता की भागीदारी बहिष्कृत होगी। देश की गंगा को वैश्विक दर्जा दिलाने के स्थान पर मोदी इसे स्थानीय धरोहर बना देना चाहते हैं। कहा जा सकता है कि सुब्रमण्यम कमेटी की संस्तुतियां मोदी के मंतव्य को नहीं दर्शाती हैं, परंतु कमेटी का गठन तो मोदी ने ही किया था। यदि मोदी को भारतीय संस्कृति और पर्यावरण से स्नेह होता तो वे कमेटी में संस्कृति एवं पर्यावरण के जानकारों को अवश्य स्थान देते।

 

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